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________________ हिन्बी बन कवि और काव्य सम्बन्ध नहीं, जो भव के मुख्य गुण राग-द्वेष मुक्त है, वह लोकन छन्द में उकेरा है। साथ में यमकालंकार की छटा भव पर करुणा करे और उसके सहारे जीव संसार से तर कवि के काव्य-नैपुण्य की प्रतीक है। इन्द्र के साथ कुमारी जाये, एक विचार का विषय है। यह सच है कि कर्तस्व देवांगनाएँ हैं। उनका रूप-यौवन अनुपम है। देवकुमारों के नितान्त प्रभाव में जिनेन्द्र करुणा क्या; कुछ भी कर के साथ वे ऐसे शोभा दे रही हैं, जैसे वस्त्र पर प्राभूषण सकने में समर्थ नहीं है। किन्तु फिर भी उनसे एक ऐसी दमकते हैं। दोनों साथ-साथ नाना कौतुक रचते हैं, खेल प्रेरणा मिलती है, जिससे यह जीव स्वत: संसार से तर खेलते हैं। उनके चित्त जिनेन्द्र की भक्ति से स्फुरायमाण जाता है। भव-पीड़ा को नष्ट करने की उपादान शक्ति होकर मानन्दोलसित हैंउस में मौजूद है, उसी से वह तरता है। कोई किसी को "कुमारी सुकुमार मार रत जिम पढभूषण मोदमई। तारता नहीं-भगवान भी नही। किन्तु जो तर चुके हैं खेले मिल खेलखेल कौतुक के कौतुक विष नर लोक भई। या तरने के पथ पर अग्रगामी हैं, उनसे प्रेरणा तो मिलती नरसिंहपुर पूर संखोत्तम उत्तम झालर भरितुरी।। ही है । इसी को सब कुछ मान कर जैन भक्त भक्ति-भरे सुरगण उलसंत शांत समके चित्त चित्त मो जिणवर भक्ति गीतों का सृजन करता है। उसकी रचनामो का बाह्य रूप फुरी॥५॥ अजैन भक्तों की कृतियों के समान ही होता है। किन्तु गंधर्व गाते है, नटदेव नाचते है। घटा-से घणघोर पृष्ठभूमि में सैद्धान्तिक भाव-धारा का मोड़ भिन्न होता ध्वनि निकलती है। ढोलक ढमक रही है। पैरों मे पड़े है । जो इसे नहीं समझता वह जैन भक्ति को भी नहीं घंघरू छन-छन कर बज रहे है। यहा कवि का शब्द. समझता । लाला हरयशराय ने लिखा है कि- लालित्य ध्वनियों को भी साकार करने में समर्थ प्रमाणित पाप तरे बहु तारत हैं प्रभु, श्री जिनदेव जिनव सुजाने। हुमा है। ऐसा प्रती। होता है कि कवि का शब्दो पर सेवक बंदत है कर जोर, करो मुझ पार क्यानिष दाने१॥ एकाधिकार था। वह दृश्य देखिएइसका अर्थ स्पष्ट है-सुजान श्री जिनदेव स्वयं तरे और "गावे गंधर्व सर्वस्वरपूरण पूरण विष गुणग्राम करें। दूसरों को भी तारा । सेवक हाथ जोड़ कर वन्दना करता नाचे नटदेव देवचरण रच रच नाटक मटरूप पर। है कि हे दयानिधि ! मुझे भी पार कर दो। ऐसा प्रतीत घंटा घनघोर घोर घटर विखढोलकवर ढोलरमै । होता है जैसे भक्त की वन्दना से दया-द्रवित हो श्री जै छगतकत बन छनछिन छिन प्रभूषगदेवनमै।६०॥" जिनेन्द्रदेव उसे भव-समूद्र से पार लगा देंगे। यदि ऐसा देवगणों ने भाति-भाति के नाटक और स्वांगों की हमा तो जैन सिद्धान्त के विरुद्ध होगा। वह हो नहीं रचना की। राग रागनियो मे सधा उनका गायन भी सकता। जिनेन्द्रदेव ऐसा कर नहीं सकते। उनके साथ भक्ति-पूर्ण था । उसमे लय-तान भी और भाव विभोरता 'कृ' धातु का सम्बन्ध ही नहीं है। किन्तु उनसे प्रेरणा भी। रास, नाटक, स्वांग, गायन, वादन और नृत्य-भक्ति ऐसी मिलती है कि जैन भक्त स्वतः पार होने के प्रयास के प्रमुख अंग रहे हैं। जैन परम्परा ने उसे भली भांति में लग जाता है। यति वह स्वतः के प्रयत्न से तर अपनायी। आज से नहीं, बहुत पहले से । उसे लेकर जायेगा; किन्तु प्रेरणा तो जिनेन्द्र से मिली, इसी कारण मध्यकाल में विकृति पाई, बढ़ चली, किन्तु कुछ प्राचार्यों वह उनके प्रति कृतज्ञ है। और इसी करण स्वतः की के सुदृढ़ प्रतिरोध से वह गतिहीन हो गई। मैंने अपने प्रथ उपादान शक्ति का फल भी उनके चरणों की कृपा मानता 'जैन भक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि' में इन मगों का तारतमिक है। ये गीत इसी भावधारा की देन होते हैं। इतिहास देने का स्वल्प प्रयास किया है। वैसे केवल इनको कवि मे चित्रांकन की प्रभूतपूर्व क्षमता है। भगवान लेकर ही एक पृथक अन्य की रचना हो सकती है। यहा जिनेन्द्रदेव समवशरण में विराजे हैं और इन्द्र सदलबल लाला रयशराय ने एक पद्य मे उसका उल्लेख किया हैउनके दर्शनार्थ पा रहा है। कवि ने उसका चित्र सिंहाव. 'बत्तीसो भात भांत भांतन के नाटक स्वांग मनप करें। प्रजोत aa १. देवाधिदेव रचना, ४४वा पद्य । गावे समराग रागिनी संयुत संयुत मुरछा ग्राम पर ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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