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________________ ३४८ अनेकान्त थे। उनका काव्य मुक्त गंगा सा पावन रहा । अनुभूतियाँ धर्म पर प्राधत है, वैसे ही रायचन्द्र का सीताचरित और तरंगों-सी उठीं और एक लचक के साथ अभिव्यक्त हो लालचन्द का लब्धोदय का पडिनीचरित जैनधर्मसे सम्बपड़ती। व्यापारी होते हुए भी उनकी अभिव्यक्ति संस्कृत- धित है। जैसे मुरसागर वैष्णवभक्ति से प्रोतप्रोत है वैसे ही निष्ठ, मंजी, निखरी होती। स्पष्ट था कि स्वत: अध्ययन भूधरदास. द्यानतराय, देवाब्रह्म प्रादि के पदों में जनभक्ति के बलपर हो या शिक्षा के आधार पर, उन्हें संस्कृत और का स्वर प्रबल है, किन्तु इतने मात्र से एक पक्ष को तो प्राकृत भाषानों का अच्छा ज्ञान था। प्रारम्भिक भाग- साहित्य की कोटि मे गिना जाय और दूसरे को निष्कासन दौड़ के मध्य विधिवत शिक्षा तो क्या मिली होगी, हो मिले उचित नही है। सकता है कि घर के सुसंस्कृत अध्ययनशील वातावरण का लाला हरयशराय ने देवाधिदेव रचना, देववाणी और उन पर प्रभाव हो। उनकी शिक्षा-दीक्षा के सम्बन्ध में साधु गुणमाला का निर्माण किया था। पहली मे ८४५, कोई प्रमाण नहीं मिलता। हिन्दी के अनेक जैन कवि । दूसरी में ५५६ और तीसरी मे १२४ छन्द हैं। इनमें ऐसे हुए हैं जिन्होंने घर पर रह कर ही प्रारम्भिक शिक्षा दोहा, कवित्त, सवैय्या छप्पय, दुमल और मरहटा आदि पाई फिर मन्दिरों में प्रतिदिन के स्वाध्याय और प्राध्यात्मिक गोष्ठियों में सतत सम्मिलित होते रहने से विद्वान छन्दों का प्रयोग हुआ है। ये तीनों कृतियां भक्ति से सम्बन्धित हैं। पाराध्य हैं तथा कवि बने । हरयशराय भी इसी भांति जैन अथ पढ़ जिनेन्द्र प्रभु जो नितान्त वीतरागी हैं। उन्हें किसी वस्तु कर और शास्त्र प्रवचन सुन-सुनकर सस्कृत-प्राकृत भाषामो की चाह नहीं, उनमे से राग-द्वेष निकल गये हैं। वे सर्व के जानकार हो गये हों तो आश्चर्य नहीं है । कुछ भी हो, ज्ञाता और सर्वदृष्टा हैं, किन्तु कर्ता नहीं। जैनभक्त उनकी शब्द शक्ति अपार थी। उस पर अधिकार था। अनुभूति को शब्द चित्रवत उतार दे, यही काव्य की यह जानता है कि उसका माराध्य कुछ भी देने में समर्थ सहजता है। वह उनमें थी। नहीं है, फिर भी वह उसकी भक्ति करता है, केवल इस लिए कि उसके अपने भाव वीगगता की पोर उन्मुख कवि हरयशराय का रचनाकाल सुनिश्चित रूप से होगे। इसके अतिरिक्त उमकी कोई अभिलाषा नौं होती। ईसा की १६ वीं शती का प्रारम्भ माना जाना चाहिये । उसकी भक्ति नितांत अहेतुक थी, अकारणिक थी। वह उनकी देवाधिदेव रचना वि० सं० १८६० में और साधु अपने पाराध्य के केवल पात्मिक गुणों पर ही रीझा है। गुणमाला १८६४ में पूर्ण हुई। इसका तात्पर्य है कि उनका जन्म ईसा की १८ वीं शती के अन्तिम पाद मे इन्ही गुणों के बल पर उसका पाराध्य विश्व में व्याप्त है और अव्याप्त भी। वह समूचे विश्व को देखने की सामर्थ हुना होगा । यह गौरव की बात है कि पंजाबी होते हुए रखता है, इसलिए व्यापक है, किन्तु स्वयं "विनानन्द' होने भी उन्होंने काव्य-सृजन हिन्दी में किया। इतना सच है कि उनके काव्य पर पंजाबी और राजस्थानी का प्रभाव है। के कारण उनमे नितांत भिन्न भी है। उसमे विश्व का भाषा में प्रवाह और गतिशीलता है। अनुप्रास, उपमा, व्यापकाव्यापकत्व भाव है। वह उसकी अनेकांत परम्पराके उत्प्रेक्षा तथा दृष्टान्त प्रादि अलंकारों की छटा सहज और __ अनुकूल ही है। स्वाभाविक है। उनकी परिगणना हिन्दी साहित्य के मंजे "सर्व को देख रहे संभ व्यापक कवियों में होनी ही चाहिये। जैन कवियो के द्वारा रचित सर्व तें भिन्न विवानन्द नामी। हिन्दी साहित्य का भावपक्ष उत्तम है तो बाह्यपक्ष भी लोकमलोक विलोक लयो प्रभु परिमाजित है। उसमे रसधार है तो प्रलंकार-निष्ठता भी। श्री जिनराज महापद कामी। फिर भी ऐसे जैन उपदेश और प्रचार-प्रधान कह कर प्रातम के गुण साप वि भुवि अस्वीकार किया जाता है। जैसे, रामचरितमानस वैष्णव सेवक बंदत है हचि पामी।" (देवाधिदेव रचना-पद २६ वां) १. देखिये दोनों ग्रन्थों की अन्तिम प्रशस्ति । जो भव-पीड़ को नष्ट कर चुका, भव से जिसका
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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