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________________ शान्तिनाथ काम २८३ अहे मावीय मास वसंत रमंतह प्रावहु रंग, महे जिणहरि पूज चडंत करत सुखेला चंग ॥१॥ अहे मिलिए सुतेवड तेवडी जेवडी साविय रंगि। महे जाईय जिणहरि मनहरि पूजकरी जिन अंगि ॥२॥ अहे वइसिय रंगिहि भंगिहि शांति जिणेसर फाग । अहे गाइहिं मिलिय पानं दिहि नादिहिं मन अनुराग ॥३॥ अहे रत्नसचय नाम पुर वर शुभ घर जिम सोहंत । अहे श्रीषेण नाम महीपति नरपति राज करत ॥४॥ प्रहे चारण पात्रह देईय लेईय गुण दातार । प्रहे आहार दान मनोहर शुभवर संचिय सार ॥४॥ गाहा-तत्तो छंडिय पाणा उत्तर कुरु भोगभूमिसु सुरुवे । जाउ प्रज्जो सुहणिहि सुपत्त दाणस्य पुणेण ॥ अहे दसविधि मुरतरु अपना नीपना भोग विसाल । अहे भोग वि दान फलेण सुहेण गमिय धणु कालु ॥१॥ अहे वस्त्राभग्ण विमडिय खडिय पल्ल त्रिआयु । अहे रोग किलेस विवज्जिन सज्जीय छडिय काय ॥२॥ गाहा-सोहम्मे सिरिणिनये दिव्वविमाण सुहाय रे तत्तो। सिरिपहदेऊ जाऊ महटिल विस्वस्वपरा ॥ पठीयु-भोगवइ भोग महत प्रपछर स्युकीडंत । नंदीसर वर ए पूजइ जिणवर ए॥१॥ अते छडिय काय अमित तेज खगराय । विजयारिधि गिरिए ऊपनउ मणहरिए ॥२॥ वहु विद्या साधेइ जिति रिपुराज करेइ । जिन गुरु पय पणमेए निशिदिन धरम रमेह ॥३॥ पछइ मजम लेवि दुहिलउ तप साधे वि । राग विणासियए सुमरण साधीयए ॥४॥ तस्मादानत संजके सुखनिधौ स्वर्गे महानिर्जरे, नाम्नाभद्रविचूलएव सुभगो ज्ञानत्रयालंकृतः। दिव्यांगो जिनचंत्यपूजनपरः स्रग्वस्त्रभूषाकितो, नंद्यावर्त विमान सत्पतिरसौ धम्मक निष्ठः शुभात् ।। अहे वीस सागर पर जीवित क्रीडित देवि मझारि । अहे समकित ज्ञान प्रलंकित संकित धर्म विचारि ॥१॥ अहे सरग विच वि अपराजित भूपति हुयउ बलभद्र । अहे जप-तप दान सुजन रजन गुणह समुद्र ॥२॥ छडिय राज विभूतीय दूतीय मुगतिहि दीख । अहे लेवि विरागइ पाचरइ सचरइ तप गुरु सीख ॥३॥ अहे मन्यासे तनु छंडिय खडिय पारनु जाल । अहे अच्युत नायक उपनऊ नीपन भोग विसाल ॥४॥ अहे अमर निकाय नमसीय ससीय गुण सुरराज । अहे जिन कल्याण भजत करत सदा मुभ काज ॥५॥ गाहा-तत्तो चविय सुरिवो वज्जायुषणाम चक्कवट्टीय । जातु गणिहि सामिय छलंड रयणाइ सिरिणाहो ॥ राम-नप सुत रमणी गजगति रमणी तरुणी सम क्रीडंत रे ॥१॥ बहु गुण सागर अवधि दिवाकर सुभकर निसि दिन पुण्य रे ॥२॥ छंडिय सब सुख पालिय जिन दिख सनमुख प्रातमध्यान रे ॥३॥ प्रणमणविधना मूकीम असुना प्राज्ञा जिनवर लेवि रे ॥४॥ गाहा-ततो पुण्य पहावं सत्तम प्रवेयकस्स सोमणसे । जातुर्दिव्य विमाणे प्रहमिदो रिद्धगण जत्तो॥ अहे वहुविह गुणगण आयर सायर मायण तीस । अहे जिरणपय कमल नमंत रमंन गयासविदीस ॥१॥ अहे तो ईहा प्रावीय ऊरनउ नीपनउ राजकुमार । अहे मेघरथो अनि सुदर मंदिर गुणगण सार ॥२॥ अहे भोग वि राज सुखेन सुभेन करत सुपुण्य । अहे सील पवास सुभूपीय सोखीय पाप ए धन्य ॥३॥ अहे काले राग विवडिय छडिय तृण जिम राज । ग्रहे मन सुदइ चारित्र धरीय कारीय प्रापण काज ॥४॥ अहे भावीय षोडश कारण साधन जिणवर नाम । अहे पर्याड तीर्थकर वाधीय शुभ परिणाम ||५|| तस्मात्सविधिना विमुच्य सुमनिः प्राणान स्वपुण्योदयात्, सजातोयहमिन्द्र एव सुभगः सर्वार्थसिद्धौ महान । दिव्यांगोति शुभाशयोति विमलाः श्रीधर्म पूजादिभाक्, बाभूषांवर भूषितोति सुकृती ज्ञानत्रयासंकृतः ।। ढालवीजी-वरदेश कुरुजागल भरतक्षेत्र हस्तिनापुर नगा धमिइ पवित्र । तहि स्वामीय विश्वसेनो नरेश त्रिह-ज्ञान-विज्ञान-वहुगुणगरेश ॥१॥ तसु ऐरादेवीय घरणि जाया महारुपलावण्य सौभाग्य काया।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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