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________________ २८४ अनेकान्त मुदा मास छ पहिलऊं धनद देव तिह मदिर प्रावीय नितु तहेव ॥२॥ करइ रतननी वृष्टि प्राकास रही जनं देखबइ पुण्यनऊ सुफल सही। एकहि दिन सूतीय सौषिबाला निशि पाछिली दीठी हां सुपन सोला ॥३॥ पहिलऊ गजदीठ तुंग काय वली वृषभ पेखिउ महाश्वेत भाय । सिंह लक्ष्मी विप्र फूल माल पूरउ चन्द्रमा सूरिज मछसार ॥४॥ काल सविइ सरोवर समुद्र देखिउ सिहासन देव विमान । सुपेखिउ बली नाग घर रतन नी राशि सखि धगधगात घण पगनि जाल निवारी ॥५॥ हवई सांभली प्रात भेरी निनाद देवी उठीय तिहा फल भरी मानद । ततो वहिलीय भरतार पासि जाई राजा पूछिऊ सुपनना फल जकाई॥६॥ भणई भूपति देवि तह्म धरमराज सुत होइ सइ भविजन करण काज। इहे वचने हेहिय डलइ हरषि जाया तिहां पानंदिइ पूरीय सयलकाया ॥७॥ छह देवि भावी तसुगरभ साध्यउ सविकलमस शुचिद्रव्ये दूरि कीधउ । तदा देवीय सोभीय दिव्य काया जिसी पूतलो कनक कनक रहित माया ।। गाहा-भद्दवकिण्हे पक्खे सतमि दिणि रोहिणी सुणक्खत्ते । तगम्भे उप्पण्णो देवो सवदसिद्धीदो। तिहां प्रावीइ सुरपति सुर समेत जिन करियउ गर्भ कल्याण पवित्र । अहे दिग कुमारी सवि सेव करइ जिन मायन्हइ हिय डलइ देव धरइ ॥१॥ वली मास नव रतन नी वृष्टि कोधी राणी मदिर गगन मणि धारु रंधी। ज्येष्ठ वदी चउदशि याम्य योग निशि पाछिली जाइउ जिन सुयोग ॥२॥ काव्यं-ज्ञात्वा जन्म जिनेशिनः सुरवरा घंटादि नादात्ततः, ससिहासनकंपन्नाच्च सकला स्व-स्वप्रियालंकृता । तज्जन्मोत्सवकारिणः सुकृतनो हस्त्यादि यानाश्रिताः । सानंदा महतोत्सवेन सुविबस्तत्राययुः सांगनाः ॥ मठिऊ-पइसीय प्रमवागार लईय शचीय कुमार । भरतार करतले ए मू किउ नद भरिए॥१॥ सुरपति नमसकरेवि बांह अपरि थापेवि परम महोत्सविए मेरु शिखरि धरिए ॥२॥ जोयण पाठ गंभीर मुखि जोयण विस्तीर सहस्र अठोत्तरए क्षीर समुद्र भरिए ॥३॥ पाडुकशिलसिरि लेवि कांचन कलस सवेवि जिनसिरि ढालीयए निजरीति पालीयए॥४॥ इन्द्राणी कौतुकी भरीतु भमा रुली जिनवर मंडन करत । भूहरि अगि भली करीतु भमारुली तिलकनि लाहि भरत ॥१०॥ प्रांजीय प्रजनि वे नयणं तु भमारुली गलि फूल माल घालति । माथ६ मणिमइ मुकुट धर्यतु भमारुली कानि कुडल झलकति ॥२॥ हियडइ हार उद्योत काइतु भमारुली कटि मेखला सोहति । करि वीटो ककण सोहइत्तु भमारुली पगि नेउर खलकति ॥३॥ पछला पहिरावि करीतउ भमारुली कीधीय शोभ महंत । दस प्रतिसय सह ऊपना तउ भमारुली स्वेद मलादि रहत ॥४॥ सहजिइं जिनवर सुदरु तउ भमारुली मडन करिउ अपार । तेज पुज जिमि दीपीउ तउ भमारुली यौवन न लहइ पार ॥५॥ रुप निरीक्षण जिण तणू तु भमारुली नपति अपामीय इन्द्र । सहस्रनेत्रनी पाइ करो तु भमारुली जिन शोभा जोइ इन्द्र ॥६॥
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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