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________________ अनेकान्त भावजीने पत्र के प्रारम्भ में जिस अदम्य उत्साह और सज्जा, रूप रेखा, कागज, छपाई, प्रफ रीडिंग मादि ऊँचे लमनका परिचय दिया, वह माज के युवामों की शक्ति दर्जे के हों। उसके संचालन के लिए समुचित स्टाफ हो। को एक चुनौती है। भर्य का प्रबन्ध, सामग्री का संकलन, यदि कभी विचार का अवसर मिला तो अपने पूर्ण सुझाव सम्पादन, प्रकाशन, प्रूफ-रीडिंग और यथास्थान भेजना और उनके साथ बा. छोटेलाल जी का स्वीकृति पत्र मादि । उन्होंने कुछ स्थायी प्राहक बनाये। एक या दो प्रस्तुत कर सकूँगा। वैसे इस समय अनेकांत को विद्वानों अंक उपरान्त मुझे बुलाया और अनेकान्त का कार्यभार का जैसा सहयोग मिलता रहा है, मिलता रहेगा, ऐसा सौंप दियो । सब कुछ समझा दिया। उनकी पकड़ पैनी मुझे विश्वास है । प्राज प्रत्येक शोध पत्रिका के मार्ग में थी विदत्ता के क्षेत्र में सूक्ष्म पेठ थी। सम्पादन करते आर्थिक बाधा सब से बड़ी है। उसके ग्राहक गिने-चुने समय बड़े-बड़े विद्वानों की कमियाँ देख लेना, समीक्षा होते हैं । दु.ख तो इस बात का है कि जो उसमें रुचि करना, टिप्पण लगाना मादि सब कुछ वे गम्भीर विवेचन रखते हैं, वे भी उसे खरीदना नहीं चाहते। यह एक रोग मौर विचार के उपरान्त ही करते थे। उन्होंने समय-समय है, जो जैन समाज में ही नही, भारतीय जनमानस में पर मुझे ममूल्य सम्मतिया दी, जिनसे अनेकांत उनके बिना व्याप्त है। क्या यह सच नही कि इंगलैण्ड का कोई व्यक्ति सका पौर चल रहा है। विद्ववर्ग और भारतीय एक-दूसरे से उधार मांगकर अखबार नहीं पढ़ता, जबकि विश्वविद्यालयों के शोष विभागों में इसकी मान्यता है। भारत का धनी व्यक्ति भी अखबार मे पैसा खर्च करना अपव्यय मानता है। इससे प्रमाणित है कि भारतराष्ट्र का फिर भी बाबूजी इससे सन्तुष्ट नहीं थे। वे इसे एक बुद्धि जीवी अभी उस स्वस्थ स्तर तक नहीं पहुँच सका प्रत्युत्तम शोष पत्रिका के रूप में देखना चाहते थे। मैंने है, जहाँ तक उसे पहुँचना चाहिए। शोध और शोध उन्हें कुछ सुझाव दिये थे, जिनसे वे पूर्णत: सहमत थे। पत्रो मे रुचि लेने वालो को यदि हम ऊँचे दर्जे का बुद्धि उन्होंने वीर-सेवा-मन्दिर के तत्कालीन मन्त्री बा. जय जीवी मानें तो अनुपयुक्त न होगा। किन्तु वे शोध-पत्रो भगवान जी को लिखा भी था कि डा. प्रेमसागर के साथ के ग्राहक नहीं बनना चाहते । यह खेद का विषय है। विचार-विमर्श कर अनेकांत को एक श्रेष्ठ पत्रिका का रूप प्रत धन एक समस्या है जो इन शोध-पत्रो के साथ जकड़ी दें। उसी समयके लगभग बा. जयभगवानजीके दिवावमान हुई है। बा० छोटेलाल जी उसे अपने ढग से सुलझा लेते से कार्य सम्पन्न न हो सका। फिर बाबूजी स्वयं दिल्ली थे। अब कोई उस ढग को अपनाकर सुलझाले. मुझे माने की बात लिखते रहे। दिल्ली प्राने की उनकी तीव्र विश्वास नहीं होता। अब भी अनेकात के स्थायी ग्राहकों अभिलाषा थी। इस बीच, काल का निमंत्रण मा पहुँचा। में श्रद्धालुप्रो की संख्या ही अधिक है। अत: अब मुझे मैं चाहता हूँ कि भनेकांत त्रैमासिक शोष पत्रिका हो, सोचना पड़ता है कि अनेकांत जिस रूप मे चल रहा है, जिसमें कम-से-कम २० फर्मे का मेटर रहे । उसकी साज- चलता रहे, वह भी एक बहुत बड़ी बात होगी।* प्रसंग की बात कलकतंकी मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी अस्पताल में, अपनी दिवंगता धर्मपत्नी स्व. मंगाबाई की स्मृति में, एक का निर्माण हेतु बाबूछोटेलाल जी ने ७-८-१९४१ को पांच हजार रुपए की राशि प्रदान की थी। पच्चीस वर्ष उपरान्त उसी अस्पताल के एक कक्ष में बाबूजी ने अन्तिम सांस ली। -नीरजन
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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