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________________ बंगाल का गुप्तकालीन जैन ताम्र-शासन स्व० बाबू छोटेलाल जैन बंगाल के राजशाही जिले में बदलगाछी थाने के इस गुप्ताब्द १५९ (सन् ४७८-७९) के ताम्र शासन अन्तर्गत और कलकत्ता से १८६ मील उत्तर को भोर में वटगोहाली ग्रामस्थ श्री गुहनन्दी के एक जैन विहार जमालगञ्ज स्टेशन से ३ मील पश्चिम की ओर पहाड़पुर का उल्लेख है। इसमें पौण्डवर्द्धन के विभिन्न ग्रामो में है। यहां एक प्राचीन मन्दिर के ध्वंशावशेष ८१ बीघो में भूमि क्रय कर एक ब्राह्मण दम्पति द्वारा वटगोहाली के हैं जिनके चारों ओर इष्टकानिर्मित प्राचीर है। इनके जैन विहार के लिये दान किया जाना लिपिबद्ध किया मध्य का टीला बहुत बड़ा होने से गांववाले इसे 'पहाड़' गया है। पहाडपुर से संलग्न पश्चिम की ओर अवस्थित के नाम से पुकारने लगे, और इसी से यह स्थान पहाड़पुर यह वटगोहाली वर्तमान का 'गोपालभीटा' ग्राम है और कहा जाने लगा। इस ग्राम में इस मन्दिर की सीमा का कुछ प्रश अवइसके निकट नदीतल के चिन्ह उपलब्ध हुए है, इससे स्थित है। प्रकट होता है कि यहां पहले नदी बहती थी। इसके ध्वश सन १८०७ मे डाक्टर बुकानन हैमिलटन को यह का एक कारण बाढ़ है; क्योंकि इसकी शून्य वेदिया और टीला (जिसके अन्दर से यह मन्दिर निकला है) "गोपालअन्य व्यवहार्य सामग्री की अनुपलब्धि यह प्रमाणित करती भीटा का पहाड" के नाम से बताया गया था। इस लेख है कि यह स्थान एकाएक परित्यक्त नहीं हुमा था। मैं उल्लिखित वटगोहाली का जैन विहार निश्चय से दूसरा कारण १३ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब मुसल- पहाइपर के इस मन्दिर के मूलस्थान पर अवस्थित था मानों ने बगाल पर आक्रमण किया तब अन्य अनेक हिन्दू मौर वटगोहाली से ही गोपालभीटा हो गया मालूम मठ-मन्दिरो के साथ-साथ इसका मी ध्वश किया जाना है। होता है। इस टीले में सबसे प्राचीन ध्वंशावशेष गुप्तान्द १५६ ईस्वी पूर्व ततीय शताब्दी के उत्तर बग मौयों के का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुया है। यहाँ से उपलब्ध विभिन्न शासनाधिकार मे था और पुण्ड्वर्द्धन नगर में उनका सामग्री की परीक्षा और मनोभिनिवेश से यह ज्ञात होता प्रान्तीय शासक रहता था। गुप्तकाल मे भी बगाल के है कि एक समय पहाडपुर जैन, ब्राह्मण और बौद्ध-इन इस प्रान्त की राजधानी पुण्डवर्द्धन थी। आजकल जो तीनों महान् धर्मों का उन्नतिवर्द्धक केन्द्र था। इसलिये स्थान महास्थान के नाम से प्रसिद्ध है, उसे ही प्राचीन प्रविच्छिन्न और धारावाहिक यात्रियों का दल पहाड़पुर काल मे पौण्डवर्डन करते थे। पहाड के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करता था और भारत के उत्तर-पश्चिम की मोर २६ मील पर और बानगढ़ भिन्न-भिन्न स्थानों से इस पवित्र स्थान पर अनेक छात्र (प्राचीन कोटिव) से दक्षिण-पूर्व की मोर ३० मील पर विद्याध्ययन के लिये पाते थे। यों तो यह स्थान बहुत अवस्थित है। इन दोनों प्रधान नगरो के निकट इस मदिर प्राचीन था, पर पञ्चम शताब्दी के पूर्वाद्ध से दशम शता म शता- को स्थापित करने का प्राशय यह था कि त्यागीगण नगरों ब्दी तक इसकी प्रख्याति अतिशय रूप में थी। से बाहर एकान्त में रह कर शान्ति से धर्मलाभ के साथयहां से उपलब्ध लेखों (ताम्रशासन और मृण्मय साथ विद्याध्ययन करे और नगर-निवासियों को भी धर्मोंमुद्रिकासमूह Sealings) से भिन्न-भिन्न दो समय के दो पदेश का लाभ मिलता रहे। दसरे उस समय पौण्डवर्द्धन विहारो के अस्तित्व की सूचना मिलती है। और कोटिवर्ष जैनाचार्यों के प्रधान पट्टस्थान भी थे। उस
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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