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________________ बाजुराहो का घण्टा मन्दिर प्रवतीर्ण हुए तो उरे चौदह स्वप्न दिखे थे३१ और जब उत्कीर्ण कराया जाता था३५। पाण्ड लिपियों मे३६ देवों ने उन्हें क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित और उनके काष्ठयावरणों और दीवालों आदिपर इन्हें कर दिया तो उसने भी वही चौदह स्वप्न देखे ३२ । प्रात चित्रित करने की परंपरा, विशेषतः श्वेताम्बरो मैं बहुत त्रिशला ने इन स्वप्नों की बात अपने पति सिद्धार्थ से कही रही है ३६ । तो उन्होने निमित्तपाठको को बुला कर इन स्वप्नों का घट६ मन्दिर, धी कॅवरलाल के शब्दों में 'आज, हजार फल बताने का आदेश दिया था। दिगम्बर जैन मान्यता वर्ष बाद, एक खंडहर के रूप में शेष है तथापि खजुराहो के अनुमार इन स्वप्नों की संख्या सोलह होती है और के स्मारको मे वह सर्वाधिक सुरुचिपूर्ण और परिष्कृत उनका अर्थ सिद्धार्थ स्वय बताते है, निमित्तपाठको को दृश्य उपस्थित करता है४०।' नहीं बुलाते३३ । मोलह स्वप्नों के दृश्य, खजुराहो में इस मन्दिर के अतिरिक्त प्रादिनाथ और शान्तिनाथ मन्दिरो ३५ यह फलक श्री पांड्यागह, पाटन, उत्तर गुजरात में में भी उत्कीर्ण हैं। देवगढ के शान्तिनाथ मन्दिर और पाबू सुरक्षित है। के खरतरवसहि मे भी इन्हें देखा जा सकता है । गर्भागृह ३६ (१) नचित्रकल्पद्रुम, प्राकृति ७३ । के प्रवेश द्वार पर मङ्गल स्वप्नों को उत्कीर्ण करने की (२) कुमारस्वामी, मानन्द के०: कैटलाग प्राफ दि परम्परा आज विद्यमान है ३४ । काप्टफलकों पर भी इन्हें इण्डियन कलेक्शस इन दि वोस्टन म्यूजियम, जिल्द ३१ कल्पसूत्र (जैकोबी), सूत्र ३, पृ० २१६ । ४, आकृतियां १३-३४ । ३२ वही, सूत्र ३१-४३, पृ० २३६३८ । (३) पवित्र कल्पद्रुम, प्राकृतियाँ १७, २२ । ३३ (१) महापराण ( पि ३७ कलेक्शस माफ प्रवर्तक श्री कान्तिविजय : जे प्राइ १०१-१६ । (२) हरिवंशपुराण, सर्ग ८, श्लोक एस प्रो ए, जिल्द ५ पृ०२-१२, और सम्बद्ध फलक । ५८-७४। ३८ णिरयावलियामो, २,१, पृ०५१ पर उल्लिखित । ३४ दि० जैन बुधूव्या का मन्दिर, बडा बाजार, मागर की ३६ स्वप्नों की सोलह की संख्या से निश्चय होता है कि दूसरी मजिल के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर यह दृश्य यह मन्दिर दिगम्बर जैनों से सम्बन्ध रखता है। सुन्दरता मे अकित है। ४. इम्मार्टल खजगहो, पृ० २२२ । स्व-स्वरूप में रम चेतन ! चिन्तन कर स्वरूपका, गहराई से मनन कर । तू कहाँ भटक रहा है। कहाँ निवास कर रहा है, जड़ पदार्थ में तेरी इतनी ममता क्यों है ? वह चर्म चक्षुमो से ही अच्छा लग रहा है। जब मैं तेरे इतिहास का अवलोकन करता हूँ तो हृदय कराह उठना है, तू अनादि काल से जड़ के अधिकार में पल रहा है। अपने स्वरूप को भूल कर इसी के साथ प्यार कर रहा है। इसी को देख-देख कर तू दीपक मे पतग की भाँति मोहित हो रहा है, इसी को सार सभाल मे पागल बन रहा है। मृग तृष्णा की भांति इसी के पीछे दौड रहा है । कभी तूने सोचा भी है कि यह मेरा नही है, फिर इसमे क्यो मुग्ध बनू? परन्तु तू तो उसी के चक्कर मे फस रहा है । अपना ज्ञानानन्द स्वभाव छोड़ कर, पर-स्वभाव मे रमण कर रहा है इसी से तू दु ख का पात्र बन रहा है। जब अज्ञानी अपने मूल स्वभाव को छोड़ कर पर की सगति करता है तब उसे जलना पड़ता है । अग्नि लोहे की संगति के कारण हथोड़ों की चोटे सहती है, यही गति प्राज तेरी हो रही है। अब तो संभल, पर को छोड़ कर स्वरूप में स्थिर हो, तभी तेरा कातिमान चिदानन्द स्वरूप झलक उठेगा।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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