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________________ . गन्धर्व भादि अंकित है, किन्तु ऊपर का भाग इस पोर तीर्थंकरों की मूर्तियां है जो प्रायः खंडित और कला की भी अधूरा है। संभव है ऊपर किसी माराध्य तीर्थकर की दृष्टि से साधारण हैं। प्रतिमा रही हो या फिर यह पाण्डक शिला की भोर क्रमांक १९७ पांच फणों से युक्त एक शीर्ष भाग है। भगवान की यात्रा का दृश्य हो सकता है। ३१३ भी एक तीर्थकर मूर्ति का मस्तक है जो अपनी कला की दृष्टि से साधारण होकर भी इस खण्ड का भाव प्रवण मुद्रा और स्मिति के कारण मन में बस जाता अभिप्राय की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। है। क्रमांक २६४ एक अन्य तीर्थकर प्रतिमा का शीर्ष कमांक ६१, १७६ तथा २५५ भाग है। उसके दोनों ओर हाथ में पुष्प माल लिए तीनों पचासन तीर्थकर प्रतिमाएं हैं। १६१ में चिह्न विद्याधर और उसकी विद्याधरी को उड़ते हुए अंकित नहीं है और सिंहासन के सिंहों के पार्श्व में भी बैठे हुए किया गया है । भामण्डल का इस मूर्ति में प्रभाव है। तीर्थकर इस मूर्ति की विशेषता हैं । १७६ आदिनाथ की छत्र भी परम्परागत नही बनाए गए है। छत्र के स्थान मूर्ति है और इसके सिंहासन में एक मनोहर धर्मचक्र पर एक हरा भरा और फलों से युक्त पाम्र वृक्ष बड़ी ही तथा एक पक्ति का शिलालेख है। गोमुख, चक्रेश्वरी सरुचि पूर्वक प्रकित किया गया है । हो सकता है यह और वृषभ यथा स्थान हैं । २५५ पारसनाथ का केवल प्रतिमा २२वें तीर्थकर नेमिनाथ भगवान की हो और यह सिहासन है पर सिंहासन का नाग और कमल बहुत सुन्दर प्रान वक्ष देवी अम्बिका के प्रतीक रूप में इनके साथ बने हैं । क्रमांक ८५, १७९ मोर २७४ कायोत्सर्ग प्रासन अकित हुमा हो। सन्तुलन अपना व्यवहार मुनि श्री कन्हैयालाल जी सुख और दुःख, जीवन रूप सिक्के के दो पहलू हैं: बन्धूवर ! इस संसार में कोई भी किसी का मित्र सुख के पीछे दुःख और दुःख के पीछे सुख का क्रम चलता नहीं है और न कोई किसी का शत्रु भी है। अपना सद्ही रहता है। फूल खिलता भी है, मुरझाता भी है। प्रसद् व्यवहार ही मित्रता और शत्रुता का कारण बनता दीपक जलता भी है, बुझता भी है। दिनकर उदित भी है। होता है, अस्त भी होता है। संसार का ऐसा प्रवाह यदि तुम्हारा व्यवहार मधुर है, हृदय में सरलता है, अनादिकाल से चलता पा रहा है। उदय और प्रस्त में वाणी मे अमृत है तो ससार मे कोई तुम्हारा शत्रु नहीं सूर्य अपने स्वभाव को नही बदलता । दोनों ही अवस्था मे रहेगा, सभी तुम्हारे मित्र बन जाएँगे। तुम्हें कोई प्रयास रक्त रहता है। यही उसकी महानता का अभिसूचक है। भी नही करना पड़ेगा। महापुरुषों में उसी की गणना होती है जो सुख और दुःख में समवृत्ति होता हैं । सुख में फलना और दुःख मे सन . मित्र बनाने से नहीं बनते, अपने व्यवहारों से बनते घबराना मानव की सबसे बड़ी दुर्बलता है। कष्टोके हैं। यदि तुम्हारा व्यवहार बुरा है, हृदय में कुटिलता है, अपरिमित भूचालों के प्रागमन पर भी जिसका हृदय व वाणी में जहर है तो सारा संसार तुम्हारा पात्र बन विचलित नहीं होता, समग्र साधन सामग्री प्राप्त हो जायेगा। लाख प्रयत्न करने पर भी कोई तुम्हें मित्र भी जो गुब्बारे की तरह फूलता नहीं, अपने निर्णीत लक्ष्य फलता नहीं. अपने नियत दृष्टिगत नहीं होगा। पर की भोर सन्तुलन से बढ़ता जाता है, वही प्राणी इस सबसे पहले अपने व्यवहारों को सुधारने का प्रयत्न मर्त्यलोक का अद्वितीय रत्न व चमकता हा एक उज्ज्वल करो । अपना व्यवहार ही शत्रु और अपना व्यवहार ही नक्षत्र है। मित्र है।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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