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________________ बौद्ध साहित्य में जैनधर्म प्रो० भागचन्द्र जैन एम. ए. प्राचार्य जैन धनुश्रुति के अनुसार जैनधर्म अनादि और अनन्त है। मानवतावाद का पक्ष जितना अधिक जैनधर्म और । दर्शन ने ग्रहण किया है, उतना शायद न किसी प्राचीन और न किसी अर्वाचीन पर्व ने इस दृष्टि से जैन सिद्धान्त की उपर्युक्त धनुवृति का हम सहसा पला नही कर सकते । वैदिक साहित्य में उपलब्ध उल्लेखों प्रौर मोहनजोदडो तथा हडप्पा की खुदाई मे प्राप्त प्रवशेषों, मूर्तियो व सीलो आदि के आधार पर प्रत्येक निष्पक्ष विद्वान् जैनधर्म को पूर्व वैदिककालीन माने बिना नही रह सकता । इन सभी प्रमाणो के आधार पर यह भी स्वीकार करना होगा कि ब्राह्मण संस्कृति की अपेक्षा धमण संस्कृति प्राचीनतर है, भले ही किसी समय विशेष मे ब्राह्मण सरकृति का प्रभाव अधिकतम हो गया हो । बुद्ध के समकालीन तीर्थकृतों के जीवन इतिहास को देखने से इतना पता तो निश्चित ही चलता है कि जैनधर्म भगवान पार्श्वनाथ धौर महावीर के समय प्रत्यधिक प्रभावकारी बना था१ । बौद्ध साहित्य भी जैन साहित्य की तरह विशाल है । मोटे रूप मे वः पालि साहित्य और बौद्ध संस्कृत साहित्य के रूप से दो भागो में विभाजित किया जाता है। नागरी लिपि मे पालि त्रिपिटक का प्रकाशन तो हो चुका, पर उसकी पटकथाओं और टीकाधो मादि का प्रकाशन भी मी बाकी है। बौद्ध संस्कृत साहित्य मे से भी सभी थोड़ा ही साहित्य प्रकाश में मा पाया है। चीनी, तिब्बती, वर्मी, सिंहली, प्रादि भाषाओं में अभी भी इसका विपुल भाग अनुवाद के रूप मे सुरक्षित है जिसका भी प्रकाशन आधुनिक भारतीय भाषाओ में होना अत्यावश्यक है । १. विशेष विवरण के लिये देखिये, मेरा निबन्ध --- Antiquity of Jainism. इन दोनो प्रकार के साहित्य में से मैंने जैन व दर्शन विषयक कुछ उद्धरणो को एकत्रित किया है जिनको प्रस्तुत निबन्ध मे बिना मीमांसा किये सक्षेप मे प्रस्तुत करने का यह प्रयास है । १. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - (क) श्रमण संस्कृति की प्राचीनता, छठी पाती ६० पु० में दोनों वैदिक पौर श्रमण संस्कृतिया जनता को प्रभावित करने में व्यस्त थीं । एक ओर जहाँ यज्ञादि द्वारा वैदिक मन्त्रो के प्रति आस्था और भक्ति प्रदर्शित की जाती थी और बाद मे जहाँ बहुदेवतावाद र एकदेवतावाद मे सक्रमण करते हुए भाय-विषयक दार्शनिक मन्तब्यो के प्रति झुकाव दिखाई देता था । वहाँ दूसरी ओर एक ऐसी भी संस्कृति का अस्तित्व था, जो उक्त सिद्धान्तो का विरोध करने मे लगी हुई थी । यही है श्रमण संस्कृति जिमका प्राधारभूत सिद्धान्त है— जीव कर्मों के अनुसार सुख दुःख पाता है । सभी जीव बराबर हैं । जाति भेद से कोई छोटा-बड़ा नही । श्रमण संस्कृति की उत्पत्ति के विषय मे अनेक मत है। डा० देव का मत है कि क्षत्रिय जाति का प्रान्दोलन, ब्राह्मण सन्यासी के नियमों का अनुकरण आदि ऐसी बाते है जिन्होने श्रमण संस्कृति को उत्पन्न करने मे सहायता दी । ३ परन्तु वस्तुतः बात यह नही है । वैदिक सस्कृति से भी पूर्व प्रात्य लोगों के अस्तित्व का पता चलता है जिन्हे जैनधर्म का पोषक कहा जाता है४ | सुत्तनिपात मे श्रमण चार प्रकार के बताये गये हैमग्गजिन, मग्गदेसक, अथवा मग्गदेसिन, मग्गजीविन और २. दामगुप्ता - A History of Indian Philosophy. Vol. 1. p. 22, २. ४. History of Jain Monachism, p. 56. देखिये, अथर्ववेद १५-१-४
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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