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________________ प्राफीका प्रथम मान सन् ४५ में प्रकाशित किया था। में पीड़ित अभावग्रस्त गरीबों की सहायता करते थे। माप इसके दूसरे भाग के लिए भी अपनी रुग्णावस्था में एमोसियेशन की तरफ से मारवाडी रिलीफ सोसाइटी के सामग्री संकलित करते रहते थे, किन्तु मापकी निरन्तर तत्वावधान में बंगाल के मोपासाली काण्ड के समय कग्णता के कारण वह सामग्री प्रकाश मे नही पा पाई। हिन्दुओं की सहायता वही गये । वहां महीनों रहकर प्राप देश-विदेश के जैन-प्रजन विद्वानो को जैन असहाय प्रत्न संसकों की हर प्रकार से सहायता करते साहित्य एव सस्कृति सम्बन्धी महत्वपूर्ण सामग्री देते रहे। वे निर्मीक होकर मुसलमानी मुहल्लों व गाँवो मे रहते थे एवं उन्हे जैन विषयों को प्रकाश में लाने की पहुंच जाते थे, एवं असहाय पौर लीगी नादिरशाही के प्रेरणा भी करते रहते थे। डा. विन्टर निटज, हा शिकार मल्लसंख्यकों की सहायता एव रक्षा करके कतग्लासिनव, थी पार.डी.बनर्जी, राय बहादुर पार० कृत्य होत थे। पी.बनर्जी, श्री एन. जी. मामदार, श्री के० एन० पाप जैसे दीन दुखी सेवको के कारण जैन समाजही दीक्षित, पमूल्यचन्द्र विद्याभूपण, डा. विभूतिभूषण दत्त, नही अपितु प्रत्येक भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा हो म.ए.पार बनजी, डा. ए. पार. भट्टाचार्य, डा. उठता है और ऐसे निःस्वार्थ सेवक की याद हमेशा बनी काग्निवाम नाग मावि अनेक विद्वान जैन विषयो पर मापसे रहेगी। जानकारी प्राप्त करते रहे हैं। लभाषिक दान देकर, धनी होते हुए भी पाप अपनी पाप का जैन विद्वानों में तो बहुत ही निकट का विज्ञापनबाजी से हमेशा दूर रहे है। पाप हमेशा कृत्य सम्बन्ध रहता था। माप उनकी सेवा एवं सम्मान का को प्रधानता देते थे, अपने नाम की कमी चिन्ता नही कोई अवसर हाथ मे नहीं जाने देते थे। पापका पं. करते थे। मापने कभी पान प्रचार की भावना मे नही मापलाल जी प्रेमी, पण्डित जुगलकिशोर जी मुमार दिया था, क्योंकि पाप मानते थे कि 'परिग्रह पाप है म शीतलप्रसाद जी, बैरिस्टर बम्पतराय बी, पणित पाप का प्रायश्चित दान है किन्तु यह दान ख्याति लाभ महेनाकुमारवी न्यायाचार्य,डा.हीगलाल जी जैन, ग. पूजा के लिए नहीं होना चाहिए प्रायश्चित की दृष्टि अपने ए.एन. उपाध्याय, प्रो. चक्रवर्ती, पण्डित लाशवन्द पाप का सशोधन पषवा अपराध का परिमार्जन करके बी, पण्डित नमुख दास जी न्यायतीर्ष मावि से पापका मात्मशुद्धि करने की मोर होती है। नियमित एव मधुर सम्पर्कमा पाप नई पीडी के विद्वानों पाप अनेक सस्मामो में विभिन्न पदों पर रहे है, को भी जैन विषयो पर अध्ययन एवं लिबने की प्रेरणा प्रापका सभी प्रकार के बर्यो से नियमित सम्पर्क रहता देते थे। पावश्यकता पड़ने पर भाषिक महयोग भी वाकिन्तु पापने अपने स्वाभिमान को हमेशा प्रमुखता दी। पाप स्पष्टवादिता में भी अपूर्व थे। पापका चाहे माप पुरातत्व, मस्कृति और शिक्षा के प्रेमी वहा कोई कितना ही निकट का क्यो न हो, पाप उसके दोप दीन दुखिों के दुबो से जल्दी ही द्रवित हो जाने। देखने पर उभे कहने में नहीं हिचकते थे। अपने मतभेद धनी होते हुए भी वे उनके दुखो और प्रभावो की अनु- को प्रकट करने में संकोच नही करते थे, इसी कारण कई भूति पपने अन्तमंन से करते थे इसलिए वे हमेशा उनके पति इनसे सन्तुष्ट नही रह पाते। ये अपने विरोधी दुखों को दूर करने के लिए तन, मन, धन से तलर रहते को भी मावश्यकता पड़ने पर सहयोग देने में मानाकानी ये। उन्होंने मनी एसोसियेशन से व्यापारिक सगठन नही करते थे। को भी ऐसे कार्यों में लगा दिया था। मापके कार्यकालमाप प्रेमीजी एव मुमार सा मे परीक्षा प्रधानी में इन मानवीय सेवा कार्यों में एसोसिएशन ने लाबों साहित्यान्वेपियो के मतयो से परिचित थे इसलिए पार रुपया व्यय किया था। प्रत्येक क्रिया की भूमिका, पापार का पूरा अध्ययन कर पाप सब बंगाल के प्रसियसन ४२-४३मकाल ही उनकी विषयता या पविषेषता स्वीकार करते थे।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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