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________________ मध्य भारत का जैन पुरातत्व १२३७ के लेख में उल्लेख है उससे पहले बना है। लेख में प्रयुक्त देवपाल, रत्नपाल, रल्हण, गल्हूण, जाहण और उदयचन्द का नाम प्राता है। गल्हण ने शान्तिनाथ का चैत्यालय बनवाया था और दूसरा चैत्यालय मदनसागरपुर मे निर्माण कराया था और इनके पुत्र जाहड और उदयचन्द्र ने इस मूर्ति का निर्माण कराया है। इससे इस कुटुम्ब की धार्मिक परिणति का कितना ही ग्राभास मिलता है और यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस कुटुम्ब मे मन्दिर निर्माण आदि का कार्य परम्परागत था । प्रस्तुत मदनसागरपुर का नाम घहार क्यों पौर कैसे पड़ा, यह विचारणीय है। बहार के उक्त मूर्ति-लेखों मे पाणा साह का कोई उल्लेख नहीं है । फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि मन्दिरादि का निर्माण उनके द्वारा हुमा है और मुनि को बाहार देने से इसका नाम 'महार' हुधा है। इस सम्बन्ध मे ऐतिहासिक प्रमाणों का अन्वेषण करना जरूरी है । जिससे तथ्य प्रकाश में ना सकें। इस तरह मदनेश सागरपुर धौर महार जैन सस्कृति के केन्द्र रहे हैं। बानपुर प्रहार क्षेत्र से ३-४ मील की दूरी पर अवस्थित है। यह भी एक प्राचीन स्थान है । जतारा ग्राम भी १२-१३वी सदी के गौरव से उद्दीपित है, वहाँ भी जैनधर्म की विशेष प्रतिष्ठा रही है। 1 मदनपुर नगर भी उक्त चन्देलवशी राजा मदन वर्मा ने सन् १०५५ (वि० स० १११२ ) में बसाया था । मदन वर्मा महोबा या जेजाकभुक्ति का शासक था । इस नगर मे छह मन्दिर हैं जिनमे तीन वैष्णव और तीन ही जैन मन्दिर हैं दो वैन मन्दिर मदनपुर भील के उत्तरपश्चिम में है घौर छडा मन्दिर तीन के उत्तर-पूर्वी किनारे से कुछ फासले पर बना हुआ है। सबसे बड़ा जैन मन्दिर, जो ३० फुट ८ इंच लम्बा और १४ फुट २ इंच चौड़ा है। सन् १०५५ (वि० सं० १११२) का बना हुआ है। यह मन्दिर शान्तिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है । इस मन्दिर में 1 फीट की एक विशाल खड्गासन अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है, जिसकी चमकदार पालिश धाम भी प्राचीनता का जयघोष कर रही है। मन्दिर के गर्भालय के प्रवेश द्वार के ऊपर मध्य में एक तीर्थंकर प्रतिमा अंकित है और उसके दोनों घोर दाएँ बाएँ दो मूर्तियाँ घोर प्रतिष्ठित हैं। जिनमें बाईं ओर की मूर्ति स० १२१३ की और दाईं मोर की १७वीं सदी की जान पड़ती है। मूलनायक प्रतिमा इससे प्राचीन रही होगी और उस पर लेख भी होगा किन्तु उसके आगे एक पाषाणखण्ड लगा देने से वह लेख उसे उठवाए बिना नहीं पढ़ा जा सकता । दूसरा मन्दिर भी नागरवीली का बना हुआ है। नागवंश का राज्य उत्तर भारत में गंगा और यमुना के मध्य में रहा है। नागों द्वारा निर्माणित शैली नागरशैली कहलाती है। इस मन्दिर की चौखट वही सुन्दर तोरणद्वारों से अलंकृत है। पोवट के ऊपर तोरण पर तीन तीर्थंकर पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं। इस तोरण के फलक के ऊपर नवग्रह की मूर्तियों के मध्य में अम्बिका और अन्य शासनदेवियाँ अंकित हैं। यह सब मंकन शिल्पी की चतुराई का अद्भुत नमूना है। इस मन्दिर में प्रादिनाथ, चन्द्रप्रभ और सम्भवनाथ की मूर्तियाँ हैं : इसमें पंक्तियों का एक लेख भी है, जिसमें स० १२०६ वैशाख सुदी १० भौमे स्वस्ति श्रीमदन वर्मा प्रादि लेख उत्कीर्णित है। इसके गर्भगृह में कुम्यनाथ, शान्तिनाथ धीर धरनाथ की तीन खड्गासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। शान्तिनाथ की मूर्ति १ फुट और बगल वाली दोनों मूर्तियाँ ७ फुट की ऊंचाई को लिए हुए हैं। इनके पादमूल मे प्रतिष्ठापक गृहस्यो का श्रद्धावत अंकन है । सभामण्डप में पुष्पमाल सहित विद्याधर और कलशाभिषेक करते हुए गजों का सुन्दर चित्रण है। तीसरा मन्दिर १७वीं शताब्दी का है। " जैन मन्दिरोंकी विशेषता है कि इसके बारहदरी के दो खम्भों पर एक लेख सं० १२३६ का उत्कीरिंगत है१, जिसमे चौहानशी धणराज के पौत्र और सोमेश्वर के पुत्र पृथ्वीराज द्वारा जेजाकभुक्ति नरेश परमार्थी को पराजित करने का उल्लेख किया गया हैं । १. श्री बाहुमान वंशे २. न पृथ्वीराज बखूब ३. भुज परमार्थी नरेन्द्र ४. स्या देशोय मुदवश्यते X X X
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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