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________________ कला को 'ताण्डव' दिया। वह इस समय तक एक महान् योगाचार्य के रूप में ख्यात हो चुके थे तथा इसमें कहा गया है कि उन्होंने ही 'भरत-पुत्रो' को सिद्धि सिखाई१ । अन्त में शिव के त्रिपुर ध्वस का भी उल्लेख किया गया है और बतलाया गया है कि ब्रह्मा के प्रादेश से भरत ने 'त्रिपुरदाह' नामक एक 'डिम' (रूवक का एक प्रकार ) भी रचा था और भगवान् शिव के समक्ष उसका अभिनय हुआ था२ ॥ वृषभवेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं । पुराणों में शिव का पद बडा ही महत्वपूर्ण है यहाँ वह दार्शनिकों के ब्रह्म है, मात्मा है, और शाश्वत हैं३ । वह एक आदि पुरुष हैं परम सत्य है तथा उपनिषदो एव वेदान्त में उनकी ही महिमा का गान किया गया है४ बुद्धिमान् और मोक्षाभिलाषी इन्ही का ध्यान करने हैं५ । वह सर्वज्ञ है, विश्व व्यापी है, चराचर के स्वामी है तथा समस्त प्राणियों मे प्रात्मरूप से वमने है६ । वह एक स्वयंभू हैं तथा विश्व की सृजन, पालन एवं सहार करने के कारण तीन रूप धारण करते है। उन्हे 'महायोगी तथा योगविद्या का प्रमुख प्राचार्य माना जाता है । मौर १० तथा वायुपुराण ११ मे शिव की एक विशेष योगिक उपासना विधि का नाम माहेश्वर योग है। इन्हें इस रूप मे 'यती' १२ 'ब्रात्म ९. वही १, ६०, ६५ २. यही ४, ५, १० हो गया असीम है ३. लिंगपुराण भाग २ २१ ४२ वायुपुराण ५५, ३ गरुडपुराण १६, ६, ७ . ४. सौरपुराण २६, ३१ महापुराण १२३, १६६ ५. वही २ ८३ ब्रह्मपुराण ११०, १०० ६. वायुपुराण ३०, २८३, ८४ ७. वही : ६६, १०८ लिंगपुराण भाग १, ११ ८. वही : २४, १५६ इत्यादि ९. ब्रह्मवैवर्त पुराण भाग १, ३, २०, ६, ४ १०. सौरपुराण अध्याय १२ ११ वायुपुराण अध्याय १० १२. मत्स्य पुराण ४७, १३० वायुपुराण १७, १६६ संयमी' 'ब्रह्मचारी' १३ तथा 'ऊर्ध्वरेता' १४ भी कहा गया है। शिव पुराग में शिव का प्रादितीर्थंकर वृषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है १५ । प्रभास पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख उपलब्ध होता है१६ । विमल सूरि के 'पउमचरिउ' के मंगलाचरण के प्रसंग में एक 'जिनेन्द्र रुद्राष्टक' का उल्लेख हुआ है। यद्यपि इसे अष्टक कहा गया है, परन्तु पद्य सात ही है। इसमें जिनेन्द्र भगवान का रुद्र के रूप मे स्तवन किया गया है, बताया गया है कि जिनेन्द्र रुद्र पाप रूपी अन्धकासुर के विनाशक हैं काम, लोभ एवं मोहरूपी त्रिपुर के वाहक है, उनका शरीर तप रूपी भस्म से विभूषित है, संम रूपी वृषभ पर वह आरूढ़ है, संसार रूपी करि (हाथी) को विदीर्ण करने वाले है, निर्मल बुद्धि रूपी चन्द्र रेखा से अलंकृत हैं, शुद्ध भाव रूपी कपाल से सम्पन्न है, व्रत रूपी स्थिर पर्वत (कैलाश) पर निवास करने वाले है, गुग-गण रूपी मानव-मुण्डो के मालाधारी है, दश धर्म रूपी खट्वाग से युक्त है। तप कीतिरूपी गौरी से मण्डित है सातभयरूपी उद्याम डमरू को बजाने वाले है, अर्थात् वह सर्वथा भीति रहित है, मनोगुप्तिरूनी सर्व परिकर से वेष्टित है, निरन्तर सत्य वाणी रूपी विकट जटा-कलाप से मंडित है तथा हुकार मात्र से भय का विनाश करने वाले है१७ । १३. वही ४७, १३० २६ वायुपुराण २४, १५२ १४. मत्स्यपुराण १२६, ५ सौरपु० ७, १०.३०,१,३०, १४ १५. इत्थ प्रभाव ऋषभोऽवतारः शंकरस्य मे । सता गतिर्दोनबन्धुर्नवमः कथितवस्तव । ऋषभस्य चरित्र हि परमं पावन महत् । स्वर्ग्य यशस्यमायुध्य श्रोतव्यं च प्रयत्नत ॥ -- शिवपुराण ४, ४७-४८ १६. कैलाशे मिले रम्ये वृषभोऽय जिनेश्वरः । चकार स्ववतार च सर्वज्ञः सर्वगः शिव ॥ -प्रभासपुराण ४६ १७. पापान्धक निर्णाय मकरध्वज-लोभ-मोहपुर दहनम् । तपोभरम भूषितागं जिनेन्द्ररुद्रं सदा बन्दे ||१|| सममवृषभारूढ तप उग्रमत तीक्ष्णशूलधरम् । संसार करिविदार जिनेन्द्र सदा बन्दे ॥२॥
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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