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________________ अनेकान्त परन्तु जब तक उनके गण-गच्छादि का ठीक पता नहीं अपने गुरु और शिष्य नेमचन्द का उल्लेख नहीं कर सकते चलता, तब तक उनमें से किस श्रीनन्दि को ग्रहण किया पे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। जाय । वसुनन्दि ने स्वयं अपना और अपने गुरु वगैरह के गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नही किया। ऐसी स्थिति में अब रही वसुनन्दि के उपासकाचार से ब्रह्मदेव द्वारा 'सुदंसणचरिउ' के कर्ता को नेमिचन्द का गुरु और उन दो गायानों के उद्धृत होने की बात, जो पापकी प्रस्तावना श्री नन्दि का शिष्य नहीं कहा जा सकता, जिनका उल्लेख का मौलिक पाधार है। वसुनन्दि श्रावकाचार में अनेक वसुनन्दि ने अपने उपासकाध्ययन में (वसुनन्दि श्रावका- गाथाएं दूसरे प्रन्यों की बिना किसी 'उक्त च' वाक्य के पाई चार में) किया है। अतः बिना किसी प्रमाण के प्रस्तुत जाती है । और एक स्थान पर तो लिखित प्रति मे 'प्रतो नयनन्दि को नेमिचन्द्र का गुरु नहीं कहा जा सकता। उस गाथा षट्कं भवसंग्रहात्' वाक्य के साथ छह गाथाएँ भाव समय मालवा में बलात्कार गण और कुन्दकुन्दान्वय प्रादि संग्रह की दी हुई हैं। ऐसी स्थिति में वे गाथाएँ बसुनन्दि को परम्परा के विद्वान थे। इससे जाना जाता है कि की निज की कृति हैं या पूर्व परम्परा के किसी ग्रन्थ सभवतः वहा दो परम्पराएँ जुदी-जुदी रही हैं। उक्त नय- पर से ली गई हैं। इसमें सन्देह नही है कि ब्रह्मदेव की मुद्रित नन्दि ने तो अपने को माणिक्यनन्दि का प्रथम विद्या वृत्ति में वे पाई जाती हैं । टीका भी उन्होंने की है। पर शिष्य सूचित किया है, श्रीनन्दि का नहीं। तब परम्परा मुझे तो वे वसुनन्दि की कृति मालूम नहीं होतीं। वे वसुकी विभिन्नता होने के कारण उनका सामजस्य कैसे बिठ- नान्द से बहुत पहले की रची गई जान पड़ती हैं। ब्रह्मलाया जा सकता है। जबकि उन्होंने अपने 'सयल विहि देव ने किसी पुरातन स्रोत से परिणामजीवमूत्त' नामक विहाणकव्व' मे अपने से पूर्ववर्ती और समसामयिक गाथा लेकर उसकी टीका बनाई है। जयसेन ने भी पचाविद्वानों का उल्लेख किया है, श्रीचन्द, प्रभाचन्द्र, श्रीकुमार, स्तिकाय की टीका में 'परिणामजीवमुत्त', गाथा को उद्धृत जिन्हें सारस्वती कुमार भी कहा है। प्राचार्य राम- कर उसकी टीका, वृहद्दव्य मग्रह की टीका के समान ही, नन्दि, रामनन्दि शिष्य बालचन्द मुनि, और हरिसिंह मुनि लिखी है, वह ज्यों की त्यों रूप मे मिलती है। का भी नामोल्लेख किया है। ऐसी स्थिति में क्या वे अन्वेषण करने पर परिणाम जीवमत्त' नाम की गाथा मूलाचार के वे अधिकार की ४८वी है। और दूसरी पौर मापनन्दि के प्रशिष्य अथवा माधनन्दि के गाथा संस्कृत टीका में नहीं है। वह अन्यत्र से उठा कर शिष्य थे। रखी गई है। चुना चे रायचन्द्र शास्त्र माला द्वारा चौथे श्रीनन्दि वे हैं, जो उग्रदित्याचार्य के गुरु प्रकाशित वहद्रव्य मंग्रह के ६५वे पेज की टिप्पणी मे थे। उग्रदित्याचार्य अपना कल्याणकारक अथ राष्ट्र- सम्पादक ने 'दुण्णिय एवं एय' गाथा के नीचे फुटनोट में कट राजा नपतग वल्लभराज के समय मे वो लिखा है कि-"यह गाथा यद्यपि सस्कृत टीका की शताब्दी में की। अत: इन श्रीनन्दि का समय भी प्रतियों में नहीं है, तथापि टीकाकार ने इसका प्राशय लगभग वही है। (कल्याण कारक २५वा अधिकार) ग्रहण किया है, और जयचद जी कृत द्रव्य सग्रह की वच पाचवेधीनन्दि बे है जिनका उल्लेख होयसल निका तथा मूल मुद्रित पुस्तक में उपलब्ध होती है, प्रतः वंश शक सं० १०४७ के पीपाल विद्यदेव वाले उपयोगी समझ कर, यहा लिख दी गई है।" इससे स्पष्ट शिलालेख में किया गया है। (श्रव०शि० ४९३ पृ० है कि ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में इस गाथा को नहीं दिया ३९५)। था। सम्पादक प. जवाहरलाल शास्त्री ने वहां जोड़ दी छठवें श्रीनन्दि सूस्थगण के विद्वान थे और थी। और फुटनोट द्वारा उसकी सूचना भी कर दी थी। विनयनन्दि के गुरु थे किन्तु बाद के संस्करणों में उसे बिना किसी फुटनोट के (देखो जैनिज्म इन साउथ इडिया पृ० ४२९) वहां शामिल कर लिया गया है। मोर अब कोठिया जी ने
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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