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________________ पुरानी बा · उमकी 'ए हिस्ट्री भाव इण्डियन लिटरेचर' के सम्बन्ध मे बातचीत करते वक्त मैंने कहा था-मिस्टर विन्टरनित्ज • यू हैव नाट डन फुल जस्टिस विथ जैनिज्म । तो उनका चेहरा लाम हो गया। उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी। शायद उसे एक नवयुवक का यह प्राप अच्छा नहीं लगा। उसे यह प्राक्षेप सह्य हो उठा फिर भी वह बात को पी गया। दूसरे दिन जब मैंने उनके सामने सैकडों जैन ग्रंथ लाकर रखे तो वह हतप्रभ सा रह गया और तब उसे लगा कि मैंने जो प्राक्षेप किया था वह वास्तव में गलत नही था । उन्होने कहा। वे कहे जा रहे थे " सही बान को बड़े-से-बड़े व्यक्ति के सामने कहने का साहन प्रत्येक व्यक्ति मे होना चाहिए। लोग जानते हुए भी सही बात तक कहने में हिचकिचाते है । श्रीर यहां कारण है कि अनेक तथ्य सामने नही ना पाते । जैन साहित्य मे अमूल्य सामग्री बिखरी पडी है किन्तु उसका कोई ढंग से उपयोग नही हो रहा है। जो कुछ हो भी रहा है वह इतना कम और अपूर्ण है कि उसे न के बराबर ही कहना चाहिए। जैन विद्वान् स्वय इम और उत्साह नही देते दिखलाते कुछ व्यक्ति काम कर भी रहे हैं तो उनसे क्या होता है जो जैन विद्वान स्वयं काम नहीं कर सकते या नही करते, वे कम-से-कम इतना तो कर ही सकते है कि काम करने वालो को उनके काम मे मदद पहुँचाएँ । नई प्रतिभाओं की जिम्मेदारी पुरातत्व सम्बन्धी अनुसन्धान की चर्चा के प्रसंग में छोटेलाल जी ने बताया कि किस तरह वे जंगलों मे अपनी जीप लिए घूमा करते थे कैसे उन्होंने का पता लगाया था। वे कह रहे थे बाज युग जिस गति से धाने बढ रहा है उस धनुपात में हम भी बहुत पीछे है हमे अपने काम मे तीव्र | गति लाने की आवश्यक्ता है। और यह काम तभी सम्भव है जब आपके उत्साही नवयुवक अपनी पूरी शक्ति लगाकर इस काम मे जुट जाए। अन्यथा ऐसे सैकड़ो प्रसंग हैं जिन पर सैकड़ो वर्षों बाद तक भी किमी का ध्यान नही जाने वाला। उदाहरण के तौर पर बुतावतार कथा के प्रसंग में जैन साहित्य में पाया है कि भगवान महावीर के निर्वाण के ६६३ वर्ष, वर्ष नांव fifoनगर (सौराष्ट्र) की चन्द्रगुफा में रहने वाले भाचार्य घरसेन के मन में बतान को लिपिवद्ध करने का विचार श्रुतज्ञान भाया धौर उन्होंने उस काम के लिए दलिय भारत से पुष्पदन्त और भूतबलि नामक दो सुनियों को ना बुलाया हम लोग इसका एक साधारण कथा जैसा मूल्यांकन करते हैं किन्तु इसमें एक बहुत बड़ा तथ्य छिपा हुआ हैं । ये पुष्पदन्त धौर भूतबलि दक्षिण से किस रास्ते होकर सौराट्र गये, यह एक स्वतन्त्र रूप से धनुसन्धान का विषय है। इसके पता लगने से एक बहुत बड़े ऐतिहांसिक तथ्य का पता लगता है और वह यह कि उस समय जहां जहां से होकर ये मुनि गये होंगे वहां वहां जैन परिवार अवश्य रहे होंगे । क्योंकि जैन मुनियों के पाहारों की एक विशेष विधि होती है। साधारण व्यक्ति तो उसे जा समझ भी नहीं सकता । दक्षिण से सौराष्ट्र तक पहुँचने मे महीनों का समय लगा होगा। इतनी लम्बी यात्रा बिना आहार किये तो सम्भव नही लगती। जिन-जिन गाँवों और नगरी में ठहर कर उन मुनियों ने माहार किये होगे वहाँ जंग धाउको को अस्तिव अवश्य रही होंगी। इस तरह सौराष्ट्र के मार्ग का पता लगने पर ७वीं शती मे जनधर्म के विस्तार का पता लगता है। इसी तरह का एक दूसरा भी प्रसंग है। इतिहास साक्षी है कि जिस समय उत्तर भारत में बारह वर्ष का अकाल पड़ा उस समय हजारों जैन मुनि दक्षिण भारत चले गये और वहा उनका भव्य स्वागत हुआ। इतिहासकारों का कहना है कि दक्षिण भारत मे जैनध समय से हुमा, किन्तु हजारों मुनियों का एक साथ पहुंचता ही इस बात को स्पष्ट रूप से सिद्ध करता है कि इतः पूर्व वहा जैन गृहस्थ परिवार पनेकों की कथा में संख्या वर्तमान के जैन मुनियों की बाहार थे। इतनी विधि कठिन है कि उसे जैन श्रावक ही समझ सकता है। हजारों के लिए धनुद्दिष्ट आहार का प्रबन्ध करना बिना हजारों से अधिक गृहस्य परिवारों के सम्भव नहीं था । "दक्षिण भारत में जन-धर्म" विषय पर खोज करने वाला व्यक्ति जब इस साक्ष्य के प्रकाश में देखेगा तो
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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