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________________ ३२ भनेकान्त समय प्रथम पौरुषी-पुरुष प्रमाण छायोपलक्षित काल गौतम-हे मानन्द ! गृहस्थ के अवधिज्ञान तो (पहर)-में स्वाध्याय, दूसरी में ध्यान तथा तीसरी उत्पन्न होता है. पर उसके वह इतने दूरवर्ती क्षेत्र को पौरुषी में भाजन-वस्त्रादि का निरीक्षण कर रहे थे। वे विषय करने वाला सम्भव नहीं है। इसलिए हे मानन्द ! जिधर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे उधर पाये तुम इस स्थानकी मालोचना करो व तप:कर्म (प्रायश्चित्त) मौर भगवान् को नमस्कारपूर्वक इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! यदि पापकी अनुज्ञा हो तो में पारणा क समय मानन्द्र-भगवन् ! क्या जिनागम में समीचीन, तत्त्व, भिक्षाचर्या के लिए वाणिजग्राम नगर में जाना चाहता हूँ। तथ्य और सद्भूत भावों के लिए भी मालोचना व तपःकर्म तत्पश्चात् भगवान् की अनुज्ञा प्राप्त कर ईर्यासमिति का निर्देश है? मादि भागमोक्त विधि से उधर गये । वे जब आवश्यकता- गौतम-ऐसा तो नहीं है। नुसार अन्न-पान को ग्रहण कर वापिस कोल्लाक संनिवेश प्रानन्द-यदि भगवन् ! ऐसे समीचीन भावों की की पोर मा रहे थे तब मार्ग में उन्होंने बहुत जनो के मुह जिनागम में मालोचना व तपःकर्म नहीं है तो माप ही से "श्रमण भगवान महावीर का शिष्य मानन्द नामक इस स्थान की मालोचना व तपःकर्म स्वीकार करें। श्रमणोपासक पौषधशाला में अपश्चिम मारणान्तिक संले- प्रानन्द श्रमणोपासक के इस प्रकार कहने पर भगवान खना का अनुष्ठान कर रहा है।" यह सुना, उसे सुनकर गौतम शंका, कांक्षा व विचिकित्सा से युक्त होते हुए उनके मन में प्रानन्द श्रमणोपासक को देखने का विचार प्रानन्द के पास से निकल कर श्रमण भगवान के पास उदितहमा। तदनुसार वे उसके पास पौषधशाला की पहँचे और तब वहां उन्होंने गमनागमन का प्रतिक्रमण एवं मोर गये। एषण-अन्वेषण की मालोचना कर लाया हुमा अन्न-जल गौतम को प्राते हुए देख कर मानन्द श्रमणोपासक भगवान् को दिखलाया। तत्पश्चात् उन्हें नमस्कार कर को बहुत हर्ष हुमा, तब उसने उन्हें हृदय से वदना व इस प्रकार बोले-"हे भगवन् ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर नमस्कार किया। फिर वह उनसे इस प्रकार बोला- भिक्षा के लिए गया था, इस प्रकार सर वृत्तान्त कहते "भगवन ! मैं इस महान् अनुष्ठान के कारण धमनियों से हुए उन्होंने कहा कि प्रानन्द श्रमणोपासक के उक्त कथन संतप्त है, प्रतएव मैं आपके पास पाकर शिर से तीन वार से मैं स्वयं शंकित हा हूँ, प्रतः पाप कहिए कि उक्त परणों की वंदना करने के लिए समर्थ नहीं हूँ, प्रतः कृपा स्थान को मालोचना व प्रायश्चित्त मानन्द श्रमणोपासक कर माप स्वयं ही यहां पधारें जिससे मैं माप महानुभाव करे या मैं करूं । के चरणों की शिर से तीन वार वंदना व नमस्कार कर इस पर भगवान् महावीर बोले कि हे गौतम ! उक्त सकू।" स्थान की मालोचना व प्रायश्चित्त तुम स्वयं करो और तदनुसार गौतम उस मानन्द श्रमणोपासक के पास इसके लिए मानन्द से क्षमा करावो३।। गये। तब वह उनके चरणों की तीन बार शिर से वंदना तदनुसार गौतम ने 'तथा' कहकर विनीतभाव से इसे कर इस प्रकार बोला-"गृहस्थ को गह के मध्य में रहते स्वीकार करते हुए उक्त स्थान की मालोचना व प्रायहए अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?" श्चित्त किया तथा प्रानन्द श्रमणोपासक से क्षमा गौतम हो सकता है। करायी। मानन्द-यदि गृहस्थ के वह हो सकता है तो मुझे इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर वहां से अन्य भी वह उत्पन्न हुआ है । उसके द्वारा मैं पूर्व, पश्चिम एवं प्रदेश के लिए विहार कर गये। [शेष पृ. ३८६ पर] दक्षिण में लवण समुद्र के भीतर तक पांच-पांच सौ योजन; में लवण समुद्रक मातर तक पाचपाप सामाजना २. उवा. १,८-८५ इसके क्रमसे नीचे लोलुपाच्युत नरक तक जानता देखता है। १. उवा. १,८१. ४. वही १,८७
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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