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साहित्य-समीक्षा
-१९६६, पृS
में कवियित्रो
भोर कर देने
जिपरत चरित-डा० माताप्रसाद गुप्त व डा. कस्तुर भाविक ढंग से हुमा है। प्रेम और उस पर जड़ा वीर रस चन्द कासलीवाल जापित, महावीर भवन, जयपुर से सिसकी ढलान शान्ति की पोर। इस अन्य की देन है। प्रकाशित, पृष्ठ-२५२, मूल्य-५ रु०, सन्-जनवरी १९६६। यह सच है कि जयपुर के भण्डारों में हिन्दी भाषा के ऐसे
कुछ वर्ष पूर्व पाटोदी के मन्दिर (जयपुर) के इस्त. अनेक रत्न पड़े हुए है। उनका सम्पादन और प्रकाशन लिखित ग्रन्थों की सची बनाते समय झकासलीवाल महावीर भवन से हो रहा है, इससे केवल जैन वाङ्मय को 'जिणदत्तचरित' की एक प्रति प्राप्त हुई थी। इसके ही नहीं, अपितु हिन्दी साहित्य भी कृतार्थ हैं। इस ग्रन्थ रचयिता कवि रल्ह ने इस चरित का निर्माण वि० सं० की छपाई, कागज, परिशिष्ट, भूमिका, मूलपन्य पौर १३५४, भादवा सुदि ५, गुरुवार के दिन पूरा किया था।
उसका अनुवाद सब कुछ डा. कस्तूरचन्द जी की कर्मठता वह हिन्दी का प्रादि काल था। इस ग्रन्थ की भाषा भी लगनशील
लगनशीलता और साधना का प्रतीक है। वे धन्यवाद के प्राचीन हिन्दी है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से उसका पात्रह। महत्व है। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास का , चम्पा शतक-चम्पादेवी-विरचित, डा. कस्तूरचन्द विद्यार्थी उसका सही मूल्यांकन कर सकेगा। यह सच है। कासलीवाल सम्पादित, प्रकाशाक-महावीर भवन, जयपुर, यदि उस दृष्टि से ग्रन्थ का संकेतात्म का माकलन भूमिका सन्-१९६६, पृष्ठ-१२४, मूल्य-२ रु.। के साथ दे दिया जाता, तो वह पूरी हो जाती। डा. इस लघुकाय पुस्तक में कवियित्री चम्पादेवी के १०१ माताप्रसाद गुप्त के सम्पादक होने के कारण हम यह पदो का सकलन है। सभी पद भक्ति में विभोर कर देने उम्मेद करते थे।
वाले है। उनमें सहज स्वाभाविकता है। चम्पादेवी जिणदत्त की कथा जैन परम्परा में सदैव लोकप्रिय साहित्यकार थी और न साहित्य-निर्माण की दृष्टि से इन रही है। शायद इसी कारण प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश, पदों की रचना की गई। चम्पादेवी एक भयंकर रोग में हिन्दी के अनेक कवियो ने उसे अपनी अनुभूति का विषय प्रस्त हुई तो मुनि वादिराज की भाति उन्होंने महन्तबनाया। रल्ह ने लाखू (लक्ष्मण) के जिस "जिनदत्त भक्ति का प्राश्रय लिया। एक दिन रोग की वेबमा से चरिउ' को अपना भाधार माना है, वह लोक के बीच प्रपीड़ित वे जमीन प्रर-पट्टी सिसक रही थी कि उनके अत्यधिक प्रिय था। रल्ह की कथा वंसी नही मिली। मुख से.पहला पद-"पड़ी.मझधार मेरी नैयामारोगे लाखू की कथा की अनेक प्रतियां मिलती हैं। मच्छा होता तो क्या होगा, निःसृत हो पड़ा। शनैः शन: रोग अचम कि ग्रन्थ के परिशिष्ट में उसे भी मूल रूप में रख दिया हो गया, किन्तु भक्ति उभरती गई। यह भाव इस रचना जाता। वैसे, भूमिका में डा० कासलीवाल ने जिणदत्त का मूलाधार है। कृति भक्ति-पूर्ण है। लोकप्रिय इतनी की कथा को लेकर बने सभी काव्यों का खोजपूर्ण इतिहास कि उसकी भनेक प्रतियां मिलती है। स्वाभाविकता ऐसी दिया है। इसमे उन्हें परिश्रम करना पड़ा होगा। शोध कि माज भी मन तृप्त होता है। उन्होंने इसकी रचना की दृष्टि से वह एक ठोस सामग्री है। पूरी भूमिका ही ६६ वर्ष की उम्र में की। प्रतः भक्ति की महजता को शोध निबन्ध है। जैन ग्रन्थों की भूमिकामों को ऐसा होना स्थान था। वह मिला। ही पड़ता है।
डा० कासलीवाल की भूमिका ने पुस्तक के महत्व डा. कासलीवाल ने इस प्रन्थ का विभिन्न दृष्टियों को और भी बढ़ा दिया है। उसमें कवियित्री का जीवनसे महत्त्व प्रतिपादित किया है। एक दृष्टि और है, प्रेम परिचय है तथा काव्य पाकलन भी । पदों का वर्गीकरण है को अक मे समेट कर वीर रस के परिपाक का इसका और तदनुसार उनके महत्त्व का प्रतिपादन । यह मावश्यक अपना ढंग है। अर्थात् इस काल की अन्य वीर रसात्मक था। एक महिला कवि की इस रचना का मुष्ठ प्रकाशन कृतियों से पृथक् है। खूबी है कि अवसान शान्तरम मे कर महावीर भवन जयपुर और उसके मन्त्री धन्यवादाह कर दिया है। कथामक के प्रबन्ध निर्वाह मे वह स्वा- है।
-डा०प्रेमसागर जैन