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________________ अनेकान्त जाने के पहिले मैं मिलने गया तो उन्होंने १००)का जगह मेरी बात नहीं मानोगे, मुझे तो अच्छा नहीं लगता एक नोट देते हुए कहा पाप अपना मार्ग-व्यय तो ले मैंने बाबूजी से जय जिनेन्द्र कहा और चल दिया। जाइये । मैंने कहा बाबूजी! मेरे मार्ग-व्यय की व्यवस्था बाबू छोटेलालजी सचमुच महान थे और उदार थे हो चुकी है, पटना वाले सरावगीजी देगे, अब आवश्य. और यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि वे विद्वानों के कता नहीं है अन्यथा अवश्य ले लेता। वा०जी ने जोर मूक सेवक थे, पोषक थे और प्रसिद्धि से सर्वथा भलिप्त देकर कहा अगर सरावगीजी प्रापको मार्ग-व्यय दंगे तो एवं निरपेक्ष रहते थे। बाबजी समर्थ थे अर्थ सम्पन्न भी षया हुमा ? थे पर वे सदैव अपने प्रापको अकिंचन मानते थे, वे जो ले जाइये, बच्चों के काम प्रायेंगे उन्हे कपड़े बनवा कहते थे उसे करके ही दिखा देते थे। देना । मैंने विनम्रता से कहा-बच्चे पापके हैं, इस समय अन्त मे स्वर्गीय पात्मा को हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पण तो आवश्यकता नहीं हैं। भाई स्वतन्त्रजी! तुम इस करता हुमा, सुख-शान्ति की कामना करता हूँ। वे महान् थे प्रकाश हितैषी शास्त्री यूं तो प्रत्येक मनुष्य के जीवन मे अपनी-अपनी विशेष- नहीं रहे। उन्होंने महत्वपूर्ण शोध खोज की इतनी सामग्री ताएं होती है किन्तु उसमे जनसाधारण की दिलचस्वी संकलित की है। जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । इसलिये नहीं होती कि उसका जनहित से कोई सम्बन्ध धपि उन्होंने कभी भी अपने को प्रकाश में लाने का नहीं होता है। किन्तु बा. छोटेलाल जी के व्यक्तित्व की प्रयत्न नहीं किया किन्तु वे सबके अग्रणी रहे। उनकी चर्चा करना इसलिये सार्थक है क्योंकि वे आजीवन धर्म विचारधारा मे कही भी अहं या दम्भ नहीं मिलता। और समाज के लिये कुछ-न-कुछ करते ही रहे। जैनदर्शन उन्होंने जानोपयोगी दूसरे के साहित्य को प्रकाश मे के प्राणभूत जैन साहित्य, इतिहास, और पुरातत्व से उन्हें लाने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु स्वयं के महत्वपूर्ण मसाधारण प्रेम था। वह स्वभाव से अल्पभापी थे किन्तु साहित्य के प्रकाशन मे उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रही। निकट पाने पर उन्हें हम मसाधारण सहृदय, सरल और उन्हें विद्वानो से असीम प्रेम था। वे प्रत्येक विद्वान सहानुभूति पूर्ण पाते। हो सकता है उनसे दूर रहने वालों का दिल खोलकर सन्मान करते थे। सुना है कि कुछ के ही इन गुणों का परिचय न मिला हो। वर्षों पूर्व वे वयोवृद्ध साहित्य तपस्वी प० जुगलकिशोर जी मुख्तार के चरण छुम्रा करते थे । मैं ५ वर्ष पर्व वैसे उनकी स्मृति पाते हो भनेक चित्र, अनेक स्म __वीरसेवामन्दिर का वैतनिक कार्यकर्ता था, और वे इसके तियाँ और प्रमेक सरल प्राकृतियाँ प्रत्यक्ष होने लगती है, सर्वस्व थे, किन्तु जब कभी कार्यवशात् उनके समीप जाने जिनमें उनकी सरलता, गांभीर्य एव समरसता प्रतिपग का अवसर पाता तो वे सम्मान के साथ सौजन्य पूर्ण व्यवपर झलकती है । वह एक उदार और कर्तव्य निष्ठ व्यक्ति हार करते थे। उनकी अनेक महत्ताएँ विस्तार भय से रहे । यद्यपि अनेक वर्षों से उनको भयकर शारीरिक प्रति लिख सकना अशक्य है । उनकी सेवाएँ महान है उन जैसी कलता रही; किन्तु फिर भी वे हतोत्साह या अकर्मण्य कर्तव्यनिष्ठा प्रत्य में दिखाई नहीं देती। वे इस य बनें नहीं रहे। मस्तिष्क और कलम कभी भी विश्रांत महापुरुष थे।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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