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________________ जैन-बौख-दर्शन १५६ दिया है। यदि भारतीय दर्शनों में से उक्त दोनों दर्शनों उदय हुमा। और महात्मा बुद्ध के बाद बौखदर्शन का को पृथक कर दिया जाय तो भारतीय दर्शन में एक बहुत प्रारम्भ हुमा । बुद्ध ने विशेषरूप से धर्म का ही उपदेश बडी कमी दृष्टिगोचर होगी। दिया था, न कि दर्शन का। अध्यात्मशास्त्र की गुत्थियों को शुष्क तर्क की सहायता से सुलझाना बुद्ध का उद्देश्य जनदर्शन का प्रारम्भ और विकास न था, किन्तु दुःखमय संसार से प्राणियों का उद्धार जनदर्शन की मान्यतानुसार जैनदर्शन की परम्परा करना ही उनका प्रधान लक्ष्य था। बुद्ध ने देखा कि अनादिकाल से प्रवाहित होती चली पा रही है । इस युग लोग पारलौकिक जीवन की समस्यामों में उलझकर में प्रादि तीर्थकर ऋषभनाथ से लेकर चौबीसवें तीर्थङ्कर ऐहिक जीवन की समस्याओं को भूलते जा रहे हैं। इसी महावीर पर्यन्त २४ तीर्थकुरों ने कालक्रम से जनदर्शन लिए उन्होंने सरल प्राचार मार्ग का प्रतिपादन करने के पौर धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। जो लोग लिए अष्टांग मार्ग (मध्यम मार्ग) का उपदेश दिया तथा जैनदर्शन को अनादि नहीं मानना चाहते हैं उन्हें कम से प्रात्मा और शरीर भिन्न है या पभिन्न ? लोक शाश्वत कम जनदर्शन को उतना प्राचीन तो मानना ही पड़ेगा, है या अशाश्वत ? इत्यादि प्रश्नों को मव्याकृत (प्रकथजितना प्राचीन और कोई दूसरा दर्शन है। प्राचार्य कुन्द- नीय) बतलाया । बुद्ध ने जिन बातों को अव्याकृत कहकर कुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, अकलक, विद्यानन्द, टाल दिया था, बाद में उनके अनुणयी दार्शनिकों ने माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र प्रादि प्राचार्यों ने जैन- उन्हीं बातों पर ऊहापोह करके बौद्धदर्शन को प्रतिष्ठित दर्शन के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया है। इन प्राचार्यों किया । वसुबन्धु, नागार्जुन, दिग्नाग, धर्मकौति, प्रशाकर ने इतर दर्शनों के सिद्धान्तों का निराकरण करके अपने गुप्त प्रादि प्राचार्यों ने इतर दर्शनों के सिद्धान्तों का सिद्धान्तों का प्रमाण के बल पर व्यापकरूप से समर्थन निराकरण पूर्वक स्वसिद्धान्तों का व्यापक रूप से समर्थन किया है। भारतीय दर्शन के इतिहास में जैनदर्शन का किया है। बौद्धदर्शन संसार के दार्शनिक इतिहास में विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। भिन्न भिन्न दार्शनिकों ने अपना विशेष स्थान रखता है। अपनी अपनी स्वाभाविक हचि, परिस्थिति या भावना से जैन-बौद्ध दर्शन में समानताजिस वस्तु तत्त्व को देखा, उसी को दर्शन के नाम से कहा जैन और बौद्ध दर्शन में कुछ बातों की अपेक्षा से किन्तु किसी भी तत्व के विषय में कोई भी तात्त्विक दृष्टि समानता है। तथा अन्य बातों की अपेक्षा से प्रसमानता ऐकान्तिक नहीं हो सकती है। सर्वथा भेदभाव या अभेद भी है। समानता सूचक बातें निम्न हैवाद, सर्वथा नित्यकान्त या क्षणिकैकान्त एकान्त दृष्टि है, १-दोनों ही दर्शन श्रमण संस्कृति के अनुयायी हैं। क्योंकि प्रत्येक तत्व अनेक धर्मात्मक है। कोई भी दृष्टि २-दोनों ही दर्शन वैदिक क्रिया-काण्ड के विरोधी उन अनेक धर्मों का एक साथ प्रतिपादन नहीं कर सकती हैं। बुद्ध और महावीर दोनों ही समकालीन थे और दोनों है। इस सिद्धान्त को जैनवर्शन ने अनेकान्त दर्शन के नाम से ही यज्ञों में विहित क्रिया-काण्डों का विरोध करके से कहा है । जैनदर्शन का मुख्य ध्येय अनेकान्त सिद्धान्त समाज को नैतिक पतन से बचाया था। के माधार पर विभिन्न मतों या विवादों का समन्वय ३-दोनों ही दर्शन अहिंसा के अनुयायी हैं। यद्यपि करना है । प्रत. भारतीय दर्शन के विकास को समझने के अन्य दर्शनों ने भी अहिंसा को माना है किन्तु बुद्ध और लिए जैनदर्शन का विशेष महत्त्व है। महावीर ने यश-विहित हिंसा का निषेध करके अहिंसा बौद्धवर्शन का प्रारम्भ और विकास को विशेषरूप से प्रतिष्ठित किया है। महावीर ने तो वैदिक दर्शन की परम्परा में परिस्थितिवश उत्पन्न प्राणीमात्र के प्रति हिंसा को त्याज्य बतला कर तथा होने वाली बुराइयों और त्रुटियों को दूर करने के लिए काम, क्रोध, लोभ प्रादि को भी हिंसा बतलाकर सूक्ष्मातिसुधारक के रूप में महात्मा बुद्ध के द्वारा बौडधर्म का सूक्ष्म अहिंसा का प्रतिपादन किया है।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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