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________________ ९१० अनेकान्त है१। प्रतिमा के अन्य दोषों का उल्लेख करते हुए वसु. भग्न प्रतिमाएं और जीर्णोद्धार नन्दी ने बताया है कि रौद्र प्रतिमा को निर्माण करानेवाले भग्न प्रतिमामों को देवालय में नहीं रखा जाता, का नाश होता है और कृशांगा प्रतिमा धन का क्षय करती उन्हें विसजित कर दिया जाता है । किन्तु जो प्रतिमाएँ है। छोटे अंगोंवाली प्रतिमा से हानि होती है पौर चिपटी सौ वर्ष से अधिक प्राचीन हो और महापुरुषों द्वारा स्थाप्रतिमा दुःख देती है। विकृत नेत्रवाली प्रतिमा से नेत्रों पित की गई हों, यदि वे खण्डित भी हो जावें तो उनकी की ज्योति की हानि होती है। यदि प्रतिमा हीनवक्त्र हो पूजा की जा सकती है। रूपमडनकार उन मूर्तियों को तो प्रशुभ है। बड़े उदर की प्रतिमा से व्याधि उत्पन्न विसर्जन करने योग्य कहते हैं जिनके अंग या प्रत्यंग भग्न होगी भोर प्रतिमा का हृदयभाग कृश बनान स हृदयराम हो गये हों६ । ठक्कर फेरु ने भी मूलनायक प्रतिमा के उत्पन्न होता है। कधे यदि हीनप्रमाण बनाये गये तो मुख, नाक, नेत्र, नाभि और कटि के भग्न हो जाने पर मृत्यु होती है । जंघाएं पतली बनाने से राजा की मृत्यु उसे त्यागने योग्य बताया है। उन्होंने अंगभग का फल होती है, हीनप्रमाण चरण बनाने से लोगो की मोर कटि बताते हुए कहा है कि जिनप्रतिमा के नख भंग होने से प्रदेश हीनप्रमाण बनाने से वाहन की मृत्यु होती है। शत्रु का भय, अगुली भंग होने से देश का विनाश, बाहु माशाधर पण्डित और वर्धमान सूरि ने अनिष्ट करने भंग होने से बन्धन, नासिका भंग होने से कुलनाश और वाली, विकृत अग वाली और जर्जर प्रतिमाओं की पूजा चरण भंग होने से द्रब्यक्षय होता है। पादपीठ, चिह्न का निषेष किया है। प्रतिमानिर्माण और पूजन में पौर परिकर भंग होने से क्रमशः बधु, वाहन और भृत्य विधि का यथेष्ट पालन न करने के कारण जो विकृतियां की हानि होती है और छत्र, श्रीवत्स तथा कान खण्डित होती हैं उनका उल्लेख बृहत्साहिता (४५।२५-३०), होने से क्रमशः धन, सुख और बन्धुनों का क्षय होता है। महाभारत (भीष्मपर्व २।३६), और रूपमडन (१।१६) मादि ग्रंथों मे किया गया है, किन्तु वीतराग भगवान की ४. शुक्रनीति ४१५२१, रूपमडन २१ प्रतिमा में विकृति उत्पन्न होने का उल्लेख जैनग्रन्थों में प्रतीमा नहीं मिलता। खण्डिता स्फुटिताप्या अन्यथा दुःखदायका ।। १. पर्यनाश विरोध च तिर्यग्दृष्टिर्भय तथा । रूपमंडन, १११ अधस्नात्पुत्रनाशं च भार्याहरणमूर्ध्वगा। वरिससयायो उड्ढ बिबं उत्तमेहि संठवियं । शोकमुगमताप स्तब्धं कुर्याद्धनक्षयम् । विकलंगु वि पूइज्जइ तं बिंबं निप्फलं न जमो ॥ शांता सौभाग्यपुत्रार्थशान्तिवृद्धिप्रदा भवेत् ।। वास्तुसारप्रकरण, २३९ वही, ४१७५-७६ यच्च वर्षशतातीतं यच्च स्थापितमुत्तमः ॥ २. सदोषाऽर्चा न कर्तव्या यतस्यादशुभावहा । तद् व्यङ्गमपि पुज्यं स्याद्विम्बं तन्निष्फलं न हि । कुर्याद रौद्रा प्रभो श कुशागी द्रव्यसक्षयम् ।। तच्च धार्य परं चैत्ये गेहे पूज्यं न पण्डित ॥ संक्षिप्ताङ्गी क्षय कुच्चिपिटा दुखदायिनी। प्राचारदिनकर, उदय ३३ विन्नेत्रा नेत्रविध्वसं हीनवक्त्रा त्वशोभिनी ।। ६. रूपमंडन, २॥१ व्याधि महोदरी कुर्याद् हृद्रोग हृदये कृशी। ७. वास्तुसारप्रकरण, २१४० अंसहीरा तु जहन्या च छु एकजघा नरेन्द्रहा ।। ८. नह अगुलीय बाहा नासा पय भंगिणुक्कमेण फल । पादहीना जनान्हन्योत्कटिहीना च वाहनम् । सत्तुभय देसभगं बंधण कुलनास दव्वक्खयं ।। ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनी प्रतिमां दोपज्जिताम् ।। पयपीठह्नि-चिण्ह-परिगरभगे जन-जाण-भिन्चहाणिकमे। वही, ४७७-८० छत्तसिरिवच्छ-सवणे लच्छीसुहबंधवाणखयं ॥ ३. प्रतिष्ठासारोबार, १३, प्राचारदिनकर, उदय ३३ । बास्तुसारप्रकरण, २४-४५ पाय
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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