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________________ १७ तीर्थकरपरकी प्राप्ति के कारण करना 'कल्पना' है प्रत्यक्ष इस कल्पना से रहित अर्थात् जैन दर्शन में दर्शनविशुद्धि प्रादि सोलह भावनामों निर्विकल्पक होता है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष, को तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण बतलाया गया है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष के भेदसे प्रत्यक्ष के बौद्ध दर्शन में दान, शील, प्रज्ञा, वीर्य, शान्ति और चार भेद हैं। प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है और अनु. समाधि इन छह पारमिताओं को बुद्धत्व प्राप्ति का कारण मान का विषय सामान्य लक्षण है। बौद्ध प्रत्यक्ष पौर माना गया है। बुद्ध ने अपने पूर्व जन्मों में इन पारमितानों अनुमान ये दो ही प्रमाण मानते हैं। का प्रयास करके बुद्धत्व को प्राप्त किया था। पारमिता प्रन्यापोहबाद का अर्थ है-पूर्णता। दान की पूर्णता दान पारमिता जैन दर्शन प्राप्त के वचन प्रादि से उत्पन्न होने कहलाती है। इस प्रकार छह परिमितामों की पूर्णता होने वाले ज्ञान को मागम प्रमाण मानता है और अर्थ को शब्द पर बुद्धत्व की प्राप्ति होती है। का वाच्य स्वीकार करता है। किन्तु बौड शब्द और प्रमाणवाद पर्थ मे सर्प और नकुल जैसा वर मानते हैं। उनका जैन दर्शन में अपने और अपूर्ण (नवीन) पदार्थ के कहना है कि शब्द और अर्थ में किसी प्रकार का सम्बन्ध निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। माणिक्य- न रहने के कारण शब्द प्रर्थ का प्रतिपादन न करके मन्दि ने परीक्षामुख में कहा है अन्यापोह अर्थात् अन्य के निषेध को कहता है । इस प्रकार स्वापूर्षिग्यवसायात्मकंशानं प्रमाणम् ॥ ११ बौद्धदर्शन के अनुसार शब्द का वाच्य अर्थ न होकर बौद्धदर्शन में प्रविसंवादी तथा प्रज्ञात अर्थ को अन्यावोह होता है। जानने वाले ज्ञान का नाम प्रमाण है। धर्मकीर्ति ने नित्यानित्यवाद प्रमाणवार्तिक मे कहा है जैनदर्शन पदार्थ को न तो सर्वथा नित्य मानता है प्रमाणमविसंवादिज्ञानमहातार्य प्रकाशो वा। और न सर्वथा अनित्य । किन्तु कचित् नित्य और कथं जैन दर्शन में प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से चित प्रनित्य मानता है। द्रव्यापिकनय की अपेक्षा से दो भेद करके पुनः सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष तथा मुख्य प्रत्यक्ष पदार्थ नित्य है और पर्यायाधिकनय की अपेक्षा से प्रनित्य के भेद से प्रत्यक्ष के दो भेद तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, है। इस मान्यता के विपरीत बौद्धदर्शन की मान्यता है अनुमान प्रौर मागम के भेद से परोक्ष के पांच भेद किए कि पदार्थ सर्वथा क्षशिक है । प्रत्येक पदार्थ क्षण-क्षण में गए हैं। विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष और अविशद ज्ञान को स्वतः विनष्ट होता रहता है। पदार्थ स्वभाव से ही परोक्ष माना गया है। जैन दर्शन में वास्तविक प्रत्यक्ष उसे विनाशशील है । 'सर्वक्षणिक सत्वात् स अनुमान से सब ही माना गया है जो इन्द्रिय प्रादि की सहायता के बिना पदार्थों में क्षणिकत्व की सिद्धि की जाती है। बोडों की केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है। प्रतः प्रवधिज्ञान, मान्यता है नित्य पदार्थ में न तो युगपत् पर्थक्रिया बन मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान को ही मुख्य प्रत्यक्ष माना सकती है भोर न क्रम से । प्रतः क्षणिक पदार्थ में ही है। पाँच इन्द्रियों से उत्पन्न और मनोजन्य ज्ञान को प्रक्रियाकारित्वरूप सत् की व्यवस्था होती है। सत् लोकव्यवहार की अपेक्षा से ही प्रत्यक्ष कहा गया है। होने से ही सब पदार्थ क्षणिक हैं । इस प्रकार बौखदर्शन प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेषरूप है और ऐसा ही में सर्वथा क्षणिकवाद को माना गया है। पदार्थ प्रमाण का विषय होता है। ध्यानयोग बौदर्शन के अनुसार कल्पना से रहित और मभ्रान्त जनदर्शन में प्रात, रौद्र, धर्म मौर शुक्ल के भेद से ज्ञान का नाम प्रत्यक्ष है। धर्मकीति ने न्यायविन्दु में चार ध्यान बतलाए गए हैं और इनमें से प्रत्येक के चारकहा है चार भेद किए गए हैं। बौद्धदर्शन में भी चार प्रकार के कल्पनापोडमत्रान्तं प्रत्यक्षम् । ध्यामों का वर्णन उपलब्ध होता है। दीर्घनिकाय के वस्तु में नाम, जाति, गुण, क्रिया पादि की योजना अनेक सूत्रों में चारों ध्यानों के स्वरूप का विवेचन किया
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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