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________________ कालोन उत्मव जो कि पारत्कालीन पूर्णमासी की रात्रि यथास्थान प्रस्तुत की है। को मनाया जाता था। यही धारत्कालीन उत्सव "कौमुदी महाकवि रइभू के साहित्य में लोकल्पानों के साथमहोत्सव" के नाम से विख्यात है। प्राचीन साहित्य से साथ लोक प्रचलित शब्दों तथा कहावतों की कमी नहीं है। अवगत होता है कि यह कौमुदी महोत्सव मगधदेश प्रमुख- प्रस्तुत "सावयचरिउ" में उसने मद्र, टक्कर, टिंह (जुए तया पाटलिपुत्र में राष्ट्रीय पर्व के रूप में प्रचलित था। का अड्डा) रसोइ, परिसिउ (परोसना) कंकड़ प्रादि नन्द एवं गुप्त कालीन साहित्य मे इसके प्रचुर उल्लेख शब्दों का प्रयोग बड़े ही ठाट के साथ किया है । इसी मिलते हैं। सम्राट अकबर का "मीनाबाजार" भी "कौमुदी प्रकार "णिय सुह पक्खालहि इमि भासियउ (अपना मुह महोत्सव" का ही सम्भवतः एक परिष्कृत एवं संशोधित धो लो तब बात करो) जैसी कई लोकोक्तियों का भी मध्यकालीन संस्करण प्रतीत होता है। पटना सिटी के प्रसंगानुकूल प्रयोग किया है। प्रक्षेत्र मे बाज भी कौमुदी महोत्सव की परम्परा किसी न बर्णन प्रसयों की दष्टि से भी "सावयचरिउ" एक किसी रूप में दृष्टिगोचर होती है। उत्तम कोटि की रचना है। उसमे सावयचरिउ की महिमा महाकवि रइधू ने "कौमुदी महोत्सव" का वर्णन करते अन्याय का फल, पुत्र महिमा, सौतियाडाह, कौलिक-सम्प्रहुए राजा के आदेश के माध्यम से कहा है कि कौमुदी- दाय, बौद्धाचार, मिट्टी भक्षण के दोष, कामान्धावस्था यात्रा के समय नगर के बाहर नन्दनवन उद्यान में रात्रि के प्रादि के वर्णन बड़े ही मार्मिक बन पड़े हैं । 'सावयचरित" समय समस्त महिलाएं क्रीड़ा करने जावेंगी। सभी मनुष्यों (श्रावक चरित) की महिमा स्वय कवि के ही शब्दों मे को चाहिए कि वे जिन भवन मे एकान्त रूप से जिनपूजादि देखिये:में रत रहे । जो कोई भी उस वन मे अपनी महिला के भणेमि समासये सावयेवितु । साथ क्रीड़ाएं करेगा अथवा क्रीड़ा करने की इच्छा करेगा, विसोहिवि किज्जहु भन्न पवित्त ॥ उसकी बोटी-बोटी काट कर फेंक दी जावेगी। मेरा राज- जहा विण चंद विहावरि किण्ण । पुत्र भी अपराधी होने पर ऐसा ही दण्ड प्राप्त करेगा: महा विणु रायह वाहिणी गिव्ह ।। सुहरमंतु बाहिर गंवणणे। जहा बलहद विहूण मुरारि। रतिहि महिलर वरता वरिषणे॥ जहा पिय संगम बज्जिय गारि ॥ विविह विणोयहि गयरिम्भंतरि। बहा विणु खंतिह उग्गतवंतु । सपलवि पर धवलहरे जिरंतरि॥ जहा विणु जुत्ता जाउ जवंतु ।। जिणु झाइम्मलु जिणु पुग्मज्ज। जहा विणु मूलहि ठाणु सुमेह । जिम बोतिजहु जिण पणविज्जह ॥ जहा विण अंत्त पसार सबेह॥ जो को वणि पइसेप्पिणु महिलहं। जहा विणु कंचण जोवण ररत। सहु कोलेसह कोलण सोलह ॥ तहा विण सण संजम हुई। सो जाउ तिल तिल खबर। सावय० १/ जह पुत्त वितो माहि समन्बर ॥ महाकवि रइधूने प्रस्तुत रचना के तीन नामों का उल्लेख सावय० २(११/३-७ किया है-(१) सावयचरिउ (२) समत्त कउमुह एवं (३) "सावयचरिउ" की एक अन्य विशेषता छन्द-वैविध्य कोमई कहा। ये सभी नाम सार्थक हैं । इनमें किसी भी की है। कवि ने वर्णन-प्रमंगों को पूर्ण भावाभिव्यक्ति के प्रकार का अन्तविरोध नहीं है । ५-६ सन्धि में श्रावक हेतु प्रसंगानुकूल मधुभारछन्द, समानिकाछन्द, विभगीछन्द चरित्र का विशद् वर्णन होने तथा प्रारम्भ में श्रावकों की भुजंगप्रयात्तछन्द एव मोतियदाम प्रभृति छन्दों का प्रयोग कथापों के वर्णन होने से "सावयचरिउ" समग्र कथामों किया है ! कवि ने कुछ छन्दों की संक्षिप्त परिभाषाएं भी एवं प्राचार वर्णन का सीधा सम्बन्ध सम्यक्त्व तथा कयामों
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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