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________________ २३८ अनेकान्त अध्यात्म में परिणत हो गया था। उनकी नाटक समयसार के जैन दर्शन के बाद प्रस्तुत जैन न्याय ग्रंथ छात्रो के का कविता कितनी प्राजल, भावगहन और वस्तुतत्त्व का लिए विशेष उपयोगी होगा। खास कर जैन न्याय के विशदता से विवेचन करने की क्षमता को लिए हुए है। प्राथमिक अध्येताओं के लिए तो प्रस्तुत पुस्तक मार्ग उसके पढ़ते ही 'हिय के फाटक खुलते हैं' कहावत चरितार्थ प्रदर्शन का काम करेगी ही। प्रथ में प्रमाण, प्रमाण के होती है। यह पद्यानुवाद पांडे राजमल जी को कलश भेद, और परोक्ष प्रमाण प्रादि का सुन्दर विवेचन दिया टोका का ऋणी है जिसके अन्तरमन से कवि संस्कृत पद्यो हुअा है। और अन्त में श्रुत के दो उपयोग और दृष्टान्ताके हार्द को स्पष्ट करने में समर्थ हो सका है। कवि की भास का भी विवेचन किया गया है। इस तरह जैन दर्शन अन्य सभी रचनाए सुन्दर और भावपूर्ण हैं। लेखक ने सम्बन्धी समस्त उपयोगी सामग्री का चयन यथा स्थान इस ग्रंथ में उनकी विस्तृत चर्चा की है । यद्यपि रचनाओं किया है। पर भी विशद प्रकाश प्रावश्यक था। परन्तु अन्य ऐसी उपयोगी पुस्तक प्रकाशन के लिए लेखक और की मर्यादा समय एव सामर्थ्य को देखते हुए वह उचित ही भारतीय ज्ञानपीठ दोनों ही धन्यवाद के पात्र है। है। भारतीय ज्ञानपीठ का यह प्रकाशन उसके अनुरूप हुमा है। और इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र है। ५. सोलह कारण भावना-लेखक महात्मा भगवान दीन, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। मूल्य दो ४. जैन न्याय-लेखक पं० कैलाश चन्द शास्त्री, रुपया। प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी। पृष्ठ सख्या ३६५ मूल्य सजिल्द प्रति का ९ रुपया। महात्मा भगवानदीन अपने समय के सुयोग्य कार्य कर्ता, और विचारक विद्वान थे। वे प्राचीन से प्राचीन प्रस्तुत ग्रंथ मे जैन न्याय या जैन दर्शन का विचार । और परम्परागत विषय को भी नई दृष्टि से देखते और किया गया है। ग्रंथ की पृष्ठभूमि (प्रस्तावना) मे जैन सोचते थे। उनके विचारो मे तर्क का संमिश्रण रहता है दार्शनिक विद्वानों के सम्बन्ध मे प्रकाश डालते हुए उनकी तो भी विचार मौलिक प्रतीत होते हैं। उनकी लेखनी रचनात्रों के चचित विषय का भी विचार किया गया है। मजी हुई और सरल है। लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक मे पाज लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक के निर्माण में अच्छा श्रम किया की दिशा में सोलह कारण भावनाओं का विवेचन किया है। जैन न्याय के सम्बन्ध में लिखा गया दर्शन साहित्य है। किन्तु उनकी भावावबोधक शब्दावलि मे 'नेता बनने का यह एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ अथ है। इसमे जैन न्याय के , के उपाय' अलौकिक है; क्योंकि जिन मार्ग में इन भाव. इतिहास के विकास क्रम के साथ-साथ उसके मान्य प्रथों नामों का सम्यक् चिन्तन करने वाला व्यक्ति तीर्थकरत्व के आधार पर प्रामाणिक विवेचन किया है। भाषा भी को प्राप्त होता है। पुस्तक नई विचारधारा को लिए प्रौढ है और अपने विचारों के प्रकट प्रदर्शन करने में हुए है। मतएव जैन संस्कृति के प्रेमी जिज्ञासुमो को उमे सावधानी से काम लिया है, यद्यपि भारतीय दर्शनों पर अवश्य पढ़ना चाहिए। अनेक पुस्तके लिखी गई है किन्तु जैन दर्शन पर ऐसी पुस्तको का निर्माण कम ही हुआ है । डा. महेन्द्रकुमार जी -परमानन्द जैन शास्त्री जिस तरह लोलते या उबलते हुए पानी में पुरुष को अपना मुख दिखाई नहीं देता उसी तरह कोष से सराबोर शरीर में, उसकी ललाई तथा उसते हुए मोठों वाली प्राकृति में प्रात्म-स्वरूप दिखलाई महीं पड़ता। मात्म-स्वरूप को जानने के लिए मानव का चित्त शान्त और निर्मल होना चाहिए, तभी उसे मात्मवर्शन पौर मारमबोध हो सकेगा, अन्यथा नहीं। मानन्द
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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