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________________ श्रावकवत-विधानका अनुष्ठाता आनन्द श्रमणोपासक बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री प्राध्यात्मिक विद्वान् श्री प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुष से समझाये जाने पर भी जब धर्मकांक्षी श्रोता उसके परिशब्द से चेतन मात्मा का उल्लेख कर उसका स्वरूप स्पर्श- पालन मे अपनी असमर्थता व्यक्त करता है तब ही उसे रस-गन्ध-वर्ण से रहित (प्रमूर्तिक), गुण व पर्यायों से श्रावक-व्रतविधान का उपदेश देना चाहिए। सहित तथा उत्पाद-व्यय-प्रीव्य से युक्त बतलाया है। यहा एक उदाहरण ऐसे ही सद्गृहस्थ का-मानन्द मनादि परम्परा से प्रवर्तमान ज्ञान की विविध अवस्थामों श्रमणोपासक का-दिया जाता है जिसने भगवान महावीर में परिणमन करने वाले उक्त प्रात्मा को उन्होंने अपने ही के समक्ष मुनिधर्म के परिपालन-विषयक अपनी असमर्थता परिणामों का कर्ता व भोक्ता बतलाया है। वह जब अन्य प्रगट कर गुहिधर्म को धारण किया था। उसका वृत्त समस्त अवस्थामों से रहित होकर स्थिर चैतन्य अवस्था श्वे. 'उवासग-दसामो' में उपलब्ध होता है। तदनुसार को प्राप्त कर लेता है तब वह अपने प्रभीष्ट प्रयोजन को यहां कुछ संक्षेप से लिखा जाता हैसिड कर लेने के कारण कृतकृत्य हो जाता है१ । यद्यपि प्रानन्द गृहपति वाणिजग्राम नगर का रहने वाला वह स्वभावतः कर्मकृत समस्त भावों के साथ तन्मय नहीं था। इस नगर का स्वामी (राजा) उस समय जितशत्रु हो रहा है, फिर भी अज्ञानी बहिरात्मा जीवों को वह उन था। प्रानन्द गहपति की पत्नी का नाम शिवनन्दा था। कर्मकृत भावों से युक्त-सा दिखता है। यही विपरीत वह बहत धनाढय-बारह करोड़ हिरण्य (सुवर्णमुद्राः बुद्धि (अविवेक) उनके ससार परिभ्रमण का कारण हो विशेष) का अधिपति-था। उसकी चार हिरण्यकोटि रही है। इस विपरीत अभिप्राय को छोड़कर-सम्यग्दृष्टि तो निधान में प्रयुक्त थी-भाण्डागार के रूप में सुरक्षित बनकर अपने प्रात्मस्वरूप का निश्चय करके-सम्य- थी, चार हिरण्यकोटि वद्धि में प्रयुक्त थी-व्यापारादि में शानी होकर-फिर उससे विचलित नहीं होना-उसीमें काम पा रही थी-तथा चार हिरण्यकोटि प्रविस्तर मे लीम रहना; यही (रत्नत्रय) पुरुषार्थसिद्धि का-प्रात्म प्रयुक्त थीं-स्थावर-जंगम सम्पत्ति मे व्यवहृत थीं। उसके प्रयोजन (परमपद-प्राप्ति) का-उपाय है३ । पास १०-१० हजार गायों के चार व्रज थे। नगर में मागे चलकर उक्त अमृतचन्द्र सूरि ने उस अल्पबुद्धि । उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। अनेक राजा आदि महाजन उपवेशक को दण्ड का पात्र बतलाया है जो प्रथमतः मुनि- अपने अभिलषित कार्य के विषय मे उससे मत्रणा किया धर्म का उपदेशन करके गृहस्थधर्म का उपदेश करता है। करते थे। इसका अभिप्राय यह है कि हित-उपदेशक को सर्वप्रथम एक समय उस वाणिजग्राम नगर के बाहिर उत्तरमुनिधर्म का ही उपदेश करना चाहिए, पर अनेक प्रकार पूर्व (प्राग्नेय कोण) दिशा मे अवस्थित दूतिपलाश नामक १. पु. सि. ९-११ चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण हुआ। २. वही १४ उनकी पयुपासना के लिए परिषद् गई। कोणिक (अंगिक३. वही १५ पुत्र) के समान जितशत्रु राजा भी गया। इस वृत्त को ४. यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। ५. बहुशः समस्तविति प्रदर्शिता यो न गृह्णाति । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।। पु. मि. १८ तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन । पु. सि. १७
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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