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________________ अनेकान्त भी भाषा में हों अतः अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित लगभग दो मास पूर्व ही संपादन कर कलकत्ता भेज दिया करना चाहिए। था। इनमें कई श्रेष्ठ एवं प्रसिद्ध लेखकों के बहुत से बहुमेरी अपनी कठिनाईया है फिर भी उन्होंने मुझे वीर- मूल्य लेख हैं अतः उनका प्रकाशित हो जाना निश्चय ही सेवामदिर के कार्यों में रुचि लेने के लिए प्रेरित किया। श्री छोटेलाल जी का उपयुक्त स्मृति चिह्न होगा। श्री यह उनकी ही प्रार्थना कहिए अथवा प्राज्ञा जो कुछ भी छोटेलाल जी अपने अन्तिम दिनों में अपनी "जैन बिबलोहो मैं "अनेकान्त" के सपादकत्व का भार सभालने के ग्राफी" का संशोधन एव परिवर्तन कर रहे थे प्रतः यह लिए सहमत हो गया। उनके अनुरोध इतने प्रेरणाप्रद देखना और अधिक प्रत्यावश्यक हो गया है कि वे "जैन एव निस्वार्थ थे कि उनका निषेध करना मुझे बड़ा ही बिबलोग्राफी" को किस दशा में छोड गये हैं ! इसके कठिन प्रतीत हुमा । प० जुगलकिशोर जी सदैव अत्यधिक प्रकाशन से जैन साहित्य के अध्ययन में विशेष योग एवं उन्सुक रहते थे कि मैं उनके प्रकाशनो को भूमिका लिखू, लाभ प्राप्त होगा! कुछ की भूमिका मैंने लिखी भी है। उनकी तीन अभि. श्रीमान् छोटेलाल जी अब इस संसार मे नही हैं पर लाषा थी कि उनके 'सन्मतिसूत्र" नामक विस्तृत निबध मुझे तनिक भी सदेह नही कि उनकी दयालु प्रात्मा वहाँ का मैं अग्रेजी अनुवाद कर दूं और मैंने वह अनुवाद मदेव झूलती रहेगी जहां जनत्व का अध्ययन सच्चे विद्वत्ता किया भी पर इस संदर्भ मे श्री छोटेलाल जी ही एक ऐसे पूर्ण ढग से होता होगा। व्यक्ति थे जिनकी सहायता और प्रेरणा से हिन्दी के कुछ श्री छोटेलाल जी ने जैन समाज, जैन साहित्य और क्लिष्ट वाक्यो का लेखक से व्यक्तिगत विवेचन कर जैन पुरातत्व के क्षेत्र में अपनी बहुमूल्य सेवाए समर्पित अग्रेजी में उचित अनुवाद किया जा सका। ऐसी गहन को है, और यह सब उन्होने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी रुचि थी बाब छोटेलाल जी की जैनत्व सबधी अध्ययन के महत्ता को प्रकट किये बिना ही प्राप्त किया है। उन्होने क्षेत्र मे ! स्वय को छिपाकर दूसरों को उत्साहित करना, मदद बड़ा खेद है ! कि श्री छोटेलाल जी का अभिनन्दन करना, तथा उनमे स्थित थोड़े से भी गुणो की प्रशसा करने ग्रन्थ उनके जीवनमे प्रकाशित न किया जा सका, यद्यपि वे का अद्भुत कौशल प्राप्त किया हुमा था, यथार्थ मे श्री ऐसे सम्मान के सर्वथा विरोधी थे अत. ऐसा लगता है कि छोटेलाल जी वह श्रेष्ठ पुण्यात्मा हैं जिनके विषय मे सभवतः उनकी इच्छा सर्वथा परिपूर्ण हो गई है, मुझे भर्तृहरि ने कहा हैविश्वास है कि व्यवस्थापक गण श्री छोटेलाल जी का पर गुण परमाणून पर्वतीकृत्यलोके । अभिनन्दन ग्रंथ प्रवश्य ही प्रकाशित करेगे। इस अभिनन्दन निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ? ग्रंथ का अंग्रेजी भाग तो मैंने उनकी दुखद मृत्यु के अनु०-कुन्दनलाल जैन एम. ए. अनासक्त कर्मयोगी पं० कैलाशचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री सन २६ मे मैं कलकत्ता रथयात्रा के अवसर पर नावा था। शरीर से दुर्बल पहले से ही थे किन्तु काम गया था। उस समय मैंने बाबू छोटेलालजी को प्रथम बार करने की उमग अद्भुत थी। जिस काम को करने का देखा था। वही कालो गोल टोपी, सफेद धुला हुआ बीड़ा उठा लेते थे उसे करके ही छोड़ते थे। 'शरीरं वा मलमल का कुर्ता और धोती। यही उनका स्थायी पहि- पातयामि कार्य वा साधयामि' यही उनका जीवन
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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