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पाइर्वाभ्युदय काम्यम् : एक विश्लेषण
२७५ गई है, जैसा कि "त्वां ध्यायंत्या." (३:२७), "माधि मात्र में प्रत्यधिक उपलब्ध है। त्वत्तः" (३-३४), "त्वत्संप्राप्त्य" (३-३६), "त्वामुद्दीश्य" रसों की दृष्टि से वीर और शृङ्गार के अतिरिक्त (३-३८), "ध्यायं ध्यायं त्वदुपगमनं" (३-३९) तथा भयानक रस का भी चित्रण किया गया है, जैसे कि "त्वामजन स्मरन्तीम्" (३.४२) प्रादि से स्पष्ट है। अमरावती नगरी के निकटवर्ती महाकाल नामक भरण्य दत्य तो वस्तुतः निर्लज्जतापूर्वक यह भी कह देता है कि में वृधों द्वारा रचित अंधकार के प्राधिक्य से दिन में भी वह (मेषरूप तीर्थकर) उस सुन्दरी का भोग करने के प्रेतगोष्ठियों की योजना की गई हैलिए अवश्य जाए। किसी पति के मुह से इस प्रकार का "अष्टुं वाञ्छा यदि च भवति प्रेतगोष्ठी विचित्रां कथन प्रशोभन ही कहा जाएगा
तिष्ठातिष्ठन्नुपरि निपत गृध्रबद्धान्धकारे। "मत्प्रामाण्यावसुभिरसने निश्चितात्मा त्वमेनां
बोषामन्येप्यहनि मितरां प्रेतगोष्ठीतिरावेभोक्तुं याया धनवनगरी तत्प्रमाणाय सज्जे।" (३-५७) रप्यन्यस्मिजलधर महाकालमासाथ काले॥"
इस काव्य के अंतिम सर्ग (चतुर्थ) में वह दैत्य संदेश श्रावण के बाद पुनः क्रुद्ध हो उठता है, क्योंकि तीर्थकर से प्रेतशवो के सामीप्य, उलूक ध्वनि तथा शृगाली-हदन उसे कोई उत्तर नहीं मिलता। वह अपने यशस्वी खड्ग प्रादि से इस भरण्य की भयानकता में और भी वृद्धि की का नाम लेकर उन्हें धमकाता है, किन्तु उन्हें युद्ध के लिए गई है, किन्तु भयानक-रस के तुरंत बाद ही शृङ्गार-रस अनुथत देखकर कायर होने का आरोप भी लगाता है। की योजना रस-चर्वणा में व्याघात उत्पन्न करती है। वैसे बाद में उन्हे विचलित करने के लिए माया-बल से वसुन्धरा जिन-मन्दिरों में सायंकालीन पूजा के पश्चात् संगीत को उपस्थित सा करता है और उसके तथा कथित प्रणय उत्पन्न करने वाली सुकण्ठी (मधुर गायिका) एवं मन्दावचनों को सुनाता भी है। इस पर भी दैत्य को जब कोई गामिती माया कीया . उत्तर नही मिलता तो वह पार्श्वनाथ के मस्तक पर पर्वत- सेलकालीन समाज मे ज्यामी की महत्वपर्ण स्थिति का खण्ड गिराना चाहता है और तभी तीर्थकर को कंवल्य पता
पता चलता है। प्राप्त हो जाता है। वह दैत्य भी क्षमा याचना करके
इस प्रकार पार्वाभ्युदय काव्य मे पार्श्वनाथ के कैवल्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
प्राप्त करने का चित्रण जैन-दर्शन के अनुसार भव्यन्त इस काव्य की भाषा सामान्यत. उच्च स्तर की है। सशक्त एव सफल हो पाया है। मेघदूत की अनुकृति होने शब्दालंकारों का इसमे प्राधान्य है। यमक अलंकार के पर भी इसमे मौलिकता एक दो लघु उदाहरण भी मिलते है, किन्तु अर्थालङ्कारों विषय-वस्तु के अनुकूल भाषा के प्रयोग में भी कहीं शिथि. का प्रयोग अत्यन्त न्यून मात्रा मे हुमा है । श्लेषालकार लता नही पाई है। वस्तुत. अनावश्यक चमत्कार के लिए तो अप्रयुक्त सा रहा है । वैसे अप्रचलित शब्दों का बाहुल्य कोई दुराग्रह न दिखाने तथा सहज कल्पना को प्राधार स्पष्ट है। उदाहरणतया सिसिधुषि, मन्दसानाः, पेपीयस्व, बनाने के कारण यह काव्य प्रत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है। धुनी, कलाराक, तितपसिषवः, जिगलिषु, एवं प्रातीप्य संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैन-धर्म के प्रचार जैसे प्रयोग उल्लेखनीय है। सन्नन्त प्रयोग भी अत्यधिक की दिशा में कवि का यह प्रयास सर्वथा स्तुत्य है। *
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