Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 415
________________ ३७८ अनेकान्त हए सम्यक्त्व के शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्ड- रहूँगा३ । प्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव; इन पांच प्रतिचारो को इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उपयुक्त श्रावकधर्म जान लेना चाहिए व तदुप माचरण नहीं करना चाहिए। को ग्रहण किया व फिर कुछ प्रश्न पूछे तथा तत्व को इसी प्रकार स्थूलप्राणातिपातविरमण, स्थूलमृषावाद- ग्रहण किया। पश्चात् उसने श्रमण भगवान् महावीर की विरमण, स्थूलप्रदत्तादानविरमण, स्वदारसन्तोष, इच्छा- तीन वार वंदना की और तब उनके पास से-उस दूति. परिमाण, दिग्वत, भोजन व कर्म की अपेक्षा दो प्रकार के पलाश चैत्य से-निकल कर जैसे पाया था वैसे ही उपभोग-परिभोग से सम्बद्ध (५+१५), अनर्थदण्डविरमण, वाणिजग्राम नगर में स्थित अपने घर पर आ गया। सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास, अतिथिसंविभाग आकर वह शिवनन्दा पत्नीसे इस प्रकार बोला-मैंने श्रमण और अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना-जोषणाराधना; भगवान महावीर के पास में धर्म को सुना, जो मुझे इन सबके अतिचारों को जान लेना चाहिए और तद्रूप अभीष्ट व रुचिकर हुआ। इससे तुम भी जामो और आचरण नहीं करना चाहिए। धमण भगवान् महावीर की वंदना एवं पर्युपासना करो इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा नामो तथा उनके पास में पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप ल्लेख के साथ निर्दिष्ट २ उन सब प्रतिचारों को जानकर बारह प्रकार के श्रावकधर्म को ग्रहण करो। मानन्द श्रमणोपासकके द्वारा इस प्रकार कहने पर उस मानन्द गृहपति ने उनके समक्ष पांच अणुव्रत और सात शिक्षाक्त स्वरूप बारह प्रकार के श्रावकधर्म को शिवनन्दा को बहुत हर्ष हुमा। उसने उसी समय कौटुस्वीकार किया। तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान महावीर म्बिक पुरुष को बुलाया और शीघ्र भगवान् महावीर की पर्युपासनार्थ चलने को कहा व वहाँ पहुँचकर उनकी को वंदनापूर्वक नमस्कार करता हमा उनसे इस प्रकार पर्युपासना की। बोला-माज से मैं अन्यतीथिक, अन्यतीथिक देवता और तब वहाँ श्रमण भगवान् महावीर ने उस शिवनन्दा अन्यतीथिकपरिगृहीत (अन्य साधु आदि); इनको वंदना के लिए धर्म का निरूपण किया। इस प्रकार उसने उनके व नमस्कार नहीं करूगा। पहिले बिना कहे अथवा कहने पास धर्म को सुनकर सहर्ष गहि-धर्म को स्वीकार किया। पर भी मैं उनको प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन न दूंगा। राजाज्ञा, गणका प्राग्रह, बलाभियोग, ३. तए णं से गाहावई समणस्स भगवग्रो महावीरस्स देवताभियोग और वृत्तिकान्तार(?);ये उसके अपवाद होगे। अन्तिए पञ्चाणुष्वइय सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं निर्गन्थ श्रमणों को प्रासुक व एषणीय (ग्रहण योग्य) सावयधम्म पडिवज्जइ, रत्ता समणं भगव महावीर प्रशन-पानादि, वस्त्र कम्बल-प्रतिग्रह (पात्र), पादपोंछन वन्दइनमसइ, २त्ता एवं वयासी-नो खलु मे भन्ते, (रजोहरण) तथा पीठफलक-शय्या-संस्तारक से दान देता कप्पइ प्रज्जपभिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि वा वन्दित्तए वा नमंसित्तए वा, पुग्विं प्रणालत्तेणं पालवित्तए वा १. इह खलु "माणन्दा" इ समणे भगवं महावीरे प्राणन्दं संलवित्तए वा, तेसि असणं वा पाणं वा खाइयं वा समणोवासगं एवं वयासी-एवं खलु, प्राणन्दा, सम साइम वा दाउ वा अणुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं जाव प्रण इक्कम प्रोगेणं गणाभिमोगेणं बलाभियोगेणं देवयाभिमोणिज्जेणं सम्मत्तस्स पञ्च मइयारा पेयाला जाणि गेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकन्तारेणं । कप्पह मे समणे यव्या, न समायरियच्वा । त जहा-सङ्का, कंखा, निम्गन्थे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइमविइगिच्या, परपासण्डपसंसा, परपासण्डसथवे । साइमेणं वत्थ-कम्बल-पडिग्गह-पायपुञ्छणं पीढफलगउवा.१,४४ सिज्जा-संथारएणं मोसहभेसज्जेणं च पडिलाभे२. वही. १, ४५-५७ माणस्स विहरित्तए"। उवा. १,५८

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