Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 416
________________ माना अमलोपासक' ३७९ तत्पश्चात् उसी धार्मिक यान (रथ प्रादि सवारी) पर पुत्र ! इस वाणिजमाम नगरमें जैसे अनेक राजेश्वर मादिने मारत होकर वह जिस दिशा से आई थी उसी दिशासे धार्मिक अनुष्ठान किया है वैसे ही मैं भी उसका अनुष्ठान वापिस चली गई। निर्द्वन्द्व होकर करना चाहता है। इसलिए अब तुम्हें अपने गौतम गणधर श्रमण भगवान महावीरको नमस्कार कुटम्बका पालम्बन स्थापित कर-तुम्हें अपना सब उत्तरकर इस प्रकार बोले-भगवन् ! मानन्द श्रमणोपासक दायित्व सम्हलाकर-मैं धर्मका परिपालन करूंगा।" पापके पास अनगार-दीक्षा लेने में समर्थ था। तब उस मानन्द श्रमणोपासकके ज्येष्ठ पुत्रने भी इस पर भगवान् महावीर बोले-गौतम ! यह कहना 'तथास्तु' कहकर उसे स्वीकार कर लिया। योग्य नहीं है। पानन्द श्रमणोपासक बहुत वर्ष तक श्रमणो तत्पश्चात् मानन्द श्रमणोपासक उसीके मित्रादिके पासक पर्याय को प्राप्त होकर सौधर्म कल्पके भीतर अरु समक्ष उसे कौटुम्बिक उत्तरदायित्वके पदपर प्रतिष्ठित णाम विमानमें देवरूप में उत्पन्न होगा। वहाँ चार पल्यो करके इस प्रकार बोला-“हे देवानुप्रिय-भद्र ! अबसे पम प्रमाण स्थिति है, यही स्थिति प्रानन्द श्रमणोपासक तुम बहुतसे कार्योमे-किसी भी कार्य के विषयमें-मुझे की कही गई है। नहीं पूछना पोर न उत्तरको अपेक्षा रखना, साथ ही मेरे तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर वहाँ से अन्यत्र लिन 7 लिये किसी प्रकार का भोजन भी नहीं बनवाना।" विहार कर गये। उघर प्रानन्द गृहपति श्रमणोपासक होकर और जीव इसके पश्चात् मानन्द श्रमणोपासक ज्येष्ठ पुत्र, मित्रअजीव को जानकर दान देता हुमा रहने लगा। इसी प्रकार मण्डली एवं जातिबन्धुनों से पूछकर अपने घरसे बाहर उसकी भार्या शिवनन्दा भी श्रमणोपासिका होकर दान देती निकल पड़ा। वह उस वाणिजग्राम नगरके मध्य में से हुई स्थित हुई। निकलकर जिधर कोल्लाक संनिवेश (ग्राम), शातकुल इस प्रकार शीलव्रत, गुणवत, विरमण-रागादिविरति, पोर पोषधशाला थी उधर जाता हसा उस पौषधशालामें प्रत्याख्यान-नमस्कार सहित मादि-और पौषधोपवास; पहुंचा व उसे प्रमाजित कर-साफ-सुथरा करके उसने इन व्रतों से अपने को भावित करते हुए उस प्रानन्द मल-मूत्र के स्थान का निरीक्षण किया। तत्पश्चात् डाभ श्रमणोपासकके १४ वर्ष बीत गये। पन्द्रहवें वर्षके मध्यमें का विस्तर विछाकर व उस पर भारुढ़ होकर वह पौषधो. किसी समय रात्रिके पिछले भागमें धर्मजागरण करते हुए पवासके साथ श्रमण भगवान् महावीरके पास स्वीकृत धर्ममनमें विचार पाया कि यहाँ वाणिजग्राम मे बहुत-से राजे- प्रज्ञप्तिका परिपालन करता हुमा स्थित हो गया। श्वर प्रादि है, निजका कुटुम्ब भी है, इन सबका मैं माधार तत्पश्चात् मानन्द श्रमणोपासकने उपासकप्रतिमामों हूँ-ये सब मेरा सम्मान करते व जब तब अनुमति चाहते को स्वीकार किया। उनमें से उसने सर्वप्रथम पहली हैं । इस पपंचमे रहते हुए श्रमण भगवान् महावीरके पास उपासकप्रतिमा पर मारूढ़ होकर उसका यथासूत्र, यथाग्रहण किये गये धर्मका निश्चिन्ततया पालन नही हो सकता कल्प, यथामार्ग और यथातत्त्व कायसे स्पर्श किया, पालन है। इसलिये मैं कल जेष्ठ पुत्रको कुटम्ब का प्राधार बना किया, शुद्ध किया और पार किया-समाप्त किया। कर उससे व मित्र जनोंसे पूछकर उनकी अनुमति लेकर- फिर वह यथाक्रमसे दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, कोल्लाक संनिवेशमें स्थित पौषधशालाका प्रतिलेखन कर- छठी, सातवीं, पाठवीं, नौवीं, दसवीं और ग्यारहवी; इन स्वच्छ करके-वहाँ रहते हुए उक्त धर्मका निश्चिन्ततासे उपासकप्रतिमामों को प्राप्त करके उनका परिपालन करने परिपालन करूंगा। लगा। ऐसा विचार कर उसने मित्रादिकोंको भोजन कराकर इन उपासकप्रतिमामो के नामोंका निर्देश और उनके व पुष्पमालामों प्रादिसे मादर-सत्कार करके उनके समक्ष परिपालन की विधिका यद्यपि यहाँ (उवासग-वसामों में) ज्येष्ठ पुत्रको बुलाया और उससे इस प्रकार बोला-“हे उल्लेख नहीं किया गया है, फिर भी अन्यत्र-समवायांग

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