Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 418
________________ मानन्ध मणोपासक ३०१ स्नान नहीं करनार, प्रकाश मे-दिन में भोजन करना वधर्मोपासक श्रमण भगवान् महावीर जिन सुहत्यीऔर प्रबद्धपरिधानकच्छ रहना । इसका परिपालनकाल शुभार्थी (अथवा गन्धहस्ती-अपनी गन्ध से इतर हाषियों छह मास मात्र है तथा पूर्व पांच प्रतिमानों का परिपालन को भगा देने वाले हाथी के समान) स्वतन्त्रता से विहार अनिवार्य है। कर रहे हैं. तब तक मुझे कल प्रातःकाल में अपश्चिम सप्तम-सचेतन पाहार का उसकी जानकारी के मारणान्तिक सलेखना को ग्रहण कर उसका पाराधन साथ परित्याग । अभिप्राय यह कि पूर्व छह प्रतिमाओं का करते हुए भोजन-पान का प्रत्याख्यान करके काम (मृत्यु) परिपालन करते हुए सात मास तक प्रासुक माहार का की पाकांक्षा न करते हुए प्रवस्थित रहना योग्य है।" इस ग्रहण करना, यह सातवी प्रतिमा है। विचार के अनुसार उसने संलेखना का माराधन प्रारम्भ अष्टमी-पूर्वोक्त सात प्रतिमानों का परिपालन करते कर दिया। हुए पाठ मास तक पृथिवीकायिकादि के उपमर्दन स्व- तत्पश्चात् किसी समय शुभ अध्यवसान, शुभ परि. रूप प्रारम्भ का तद्विषयक जानकारी के साथ परित्याग णाम, विशद्धि को प्राप्त होने वाली लेश्यामों मोर तदाकरना । वरणीय कर्मों के क्षयोपशम से उस मानन्द श्रमणोपासक नवमी-पर्व पाठ प्रतिमानो का परिपालन करते हुए के प्रवधिज्ञान प्रादुर्भत हपा। उसके प्रभाव से वह पूर्व में नौ मास तक दूसरे सेवकादिकोके द्वारा प्रारम्भ न लवण समद के भीतर तक पांच सौ योजन प्रमाण क्षेत्र कराना। को जानने देखने लगा, इसी प्रकार दक्षिण और पश्चिम दसवी-पूर्व नौ प्रतिमानो का परिपालन करते हुए दिशा में भी लवण समुद्र के भीतर तक पांच-पांच सौ प्राधाकर्मयुक्त भोजन का परित्याग करके शिर का उस्तरे योजन प्रमाण ही क्षेत्र को जानने-देखने लगा। उत्तर से मुण्डन कराना व चोटी रखना । कुछ गृहसमूह के मध्य दिशा मे वह उससे क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत तक जानता मे यदि किसी ने पूछा और उसकी जानकारी हो तो देखता था। ऊपर वह सौधर्म कल्प तक जानता देखता 'जानता हूँ' कहना, अन्यथा 'नहीं जानता हूँ यही कहना। था। नीचे इस रत्नप्रभा पृथिवी के चौरासी हजार वर्ष इसका परिपालनकाल दस मास प्रमाण है। प्रमाण मायुस्थिति वाले लोलुपाच्युत नरक तक जानता ग्यारहवीं-श्रमण का अर्थ निर्ग्रन्थ साधु होता है, देखता था। मत. साधु के समान अनुष्ठान करना, यह श्रमणभूत नाम उसी समय श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण की ग्यारहवी प्रतिमा है। हुमा। परिषद प्रायी और वापिस चली गई। पूर्वोक्त विधि से उस कठोर तपःकर्म का प्राचरण उस समय धमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य करने के कारण मानन्द धमणोपासक का शरीर मूख गया इन्द्रभूति अनगार (गृहविमुक्त मुनि)-जिनका गोत्र था, वह कृश धमनियो (सिरामओ) से सन्तप्त हो रहा था। गौतम था, जो सात हाथ ऊचे थे, समचतुरस्रसस्थान व इस बीच किसी समय उस मानन्द श्रमणोपासक के वज्रर्षभनाराचसंहनन से सुशोभित थे, गौरवर्ण थे; उपपूर्व रात्रि मे धर्मजागरण करते हुए यह विचार उदित तप. दीप्ततप, घोरतप, महातप, उदार, घोरतपस्वी एवं हुमा-"इस प्रकार यद्यपि शुष्क धमनियो से मैं सन्तप्त घोरब्रह्मचारी प्रादि अनेक ऋद्धियो से सम्पन्न थे; जो हैं, फिर भी मुझमे उत्थान, कर्म, बल, बीर्य, पौरुष-पराक्रम शरीर को छोड़ चके थे-जिनका उससे ममत्वभाव नष्ट तथा श्रद्धा, धैर्य एवं सवेग विद्यमान है। इसलिए जब होबका था. जिन्होंने विस्तीर्ण तेजोलेश्या को मक्षिप्त तक यह सब सामग्री बनी हुई है तथा जब तक धर्माचार्य कर दिया था-ऐसे वे महपि बेला (दो उपवास) रूप १. प्रस्नायी स्नानपरिवर्जकः । क्वचित् पठचते-'मनि- विच्छेद रहित तपःकर्म व संयम से अपने को सुसंस्कृत कर साइति' न निशायामत्तीत्यनिशादी। सम० अभयदेववृत्ति ११. उस समय वे भगवान गौतम बला की पारणा के

Loading...

Page Navigation
1 ... 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426