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.बनेकान्त
मादिमें उनके नाम आदि उपलब्ध होते हैं, जो इस व्रतोंका पालन करना । इसका परिपालनकाल दो मास है। प्रकार है
तृतीय-पूर्व दो प्रतिमानों के साथ सावद्ययोगका १. दानश्रावक २. कृतव्रतकर्म ३. सामायिककृत परित्याग और निरवद्ययोगका आसेवन । इसके परिपालन
पिवासनिरत ५. दिवा ब्रह्मचारी रात्रिपरिमाण का काल तीन मास प्रमाण है। कृत ६. दिवापि रात्रौ अपि ब्रह्मचारी, प्रस्नायी, विकट
चतुर्थ-पोषधका अर्थ पाहार का परित्याग मादि है। मोजी,मौलिकृत ७. सचित्तपरिजात ८. प्रारम्भपरिज्ञात ६.
पूर्व तीन प्रतिमानों के साथ प्रष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या प्रेष्यपरिज्ञात १०. उद्दिष्टभक्तपरिज्ञात और ११. श्रमण
व पौर्णमासी; इन पर्वोमे चतुर्विध माहार के परित्यागादिभूत।
रूप उपवासके साथ अवस्थित रहना । इसका परिपालनइन उपासकप्रतिमानोंका स्वरूप इस प्रकार है
काल चार मास है। प्रथम-अणुव्रत व गुणवतोंसे रहित होकर निरतिचार
पंचम-अष्टमी प्रादि पर्व दिनों मे एकरात्रिकप्रतिमासम्यग्दर्शनका पाराधन करना । इसका परिपालनकाल एक कारी-रात्रि कायोत्सर्ग करने वाला-होकर शेष दिनों मास मात्र है।
में दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए रात्रि में विषयद्वितीय-पूर्व (प्रथम) प्रतिमाके साथ अणुव्रतादिरूप १२ भोग का प्रमाण करना। इसका परिपालनकाल पाँच १. एक्कारस उवासगपडिमामो ५० त०-दसणसावए मास है। इसके पूर्व की चार प्रतिमानो का परिपालन १ कयन्वयकम्मे २ सामाइयकडे ३ पोसहोववासनिरए
करना अनिवार्य है। ४ दिया बंभयारी रत्तिपरिमाणकडे ५ दिवा वि
षष्ठ-दिन व रात्रि दोनों में ही ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना, रामो वि बंभयारी प्रसिणाई वियडभोई मोलिकडे ६ ३. तथा पंचमी प्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वेकरात्रिकसचितपरिणाए ७ प्रारंभपरिणाए ८ पेसपरिणाए प्रतिमाकारी भवति, एतदर्थ च मूत्रमधिकृतसूत्रउद्दिभत्तपरिणाए १० समणभूए ११ प्रावि भवइ पुस्तकेषु न दृश्यते, दशादिषु पुनरूपलभ्यते इति समणाउसो । समवायाग सूत्र ११. पृ० १८-१९
तदर्थम् उपदर्शितः, तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी, इन प्रतिमानों का स्वरूप 'गुरुगुण-निशत्-षट्
'रत्तीति रात्री किम् ? प्रत पाह-परिमाणम्त्रिशिकाकुलक' की गाथा १३ की स्वोपज्ञ वृत्ति मे स्त्रीणा तभीगानां वा प्रमाणम्-कृत येन स परिमाणकुछ गाथाम्रो को उद्धृत कर दिया गया है। उनमें कृत इति। अयमत्र भावो दर्शन-व्रत-सामायिकाप्टप्रथम गाथा इस प्रकार है
म्यादिपौषधोपेतस्य पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारिणः, दसण वय सामाइय पोसह पडिमा प्रबंभ सच्चिने । शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारिणो रात्रावब्रह्मपरिमाणकतो. प्रारंभ पेस उद्दिट्ट वज्जए समणभूए य ॥
ऽस्नानस्यारात्रिभोजिन प्रबद्धकच्छस्य पञ्चमासान (इसका प्रथम चरण प्राचार्य कुन्दकुन्दके चारित्र- यावत् पंचमी प्रतिमा भवतीति । उक्तं चप्राभूत की गाथा २१ से मिलता हुआ है।)
प्रदुमी-च उद्दसीसु पडिमं ठाएगराईय ।। 30 अन्तिम श्लोक इस प्रकार है
प्रसिणाण-वियडभोई मलियडो दिवसबंभयारीय। नाममित्तमिमं वृत्त किचिमित्तं सरूवनो।
रति परिमाणकडो पडिमावज्जेसु दियहेसु ॥ त्ति । उवासगपडिमाणं च विसेसो सुय-सायरे ॥
समवायांगसूत्र ११ (अभयदेव वृत्ति) गु० गु०प० त्रि० पृ० ४०-४१
('अबकच्छ' से क्या अभिप्राय रहा है, यह समझ २. यह ध्यान रहे कि यहाँ इन प्रतिमानों का स्वरूप में नही पाया, वैसे 'कच्छा' शब्द का अर्थ लंगोट
श्वेताम्बर प्रन्यों के प्राधार से निर्दिष्ट किया जा रहा होता है, पर उसके बाधने का निषेध करना अप्राहै, जो तुलनात्मक अध्ययन के लिए उपयोगी प्रमा- संगिक-सा दिखता है। सम्भव है शिर पर पगड़ी प्रादि णित हो सकता है।
न बांधने का अभिप्राय रहा हो।)