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पाश्र्वान्युक्य काम्यम् : एक विश्लेषण
प्रत तक अस्पष्ट ही बना रहता है। यह भी पता नहीं एक ओर तो कमठ दैत्य के हृदय में प्रतिशोध की चलता कि अंबुवाह को स्वकीय प्रमाद के कारण कहाँ तीव्र ज्वाला प्रज्वलित है तथा दूसरी ओर वह पार्श्वनाथ निष्कासित किया गया था, किन्तु अनुमान यही होता है को भाई कहकर पुकारता है। गले मिलने के लिए उनका कि रामगिरि पर पाश्रम बनाकर रहता था। कथानक मे पाहान भी करता है, जिससे कि लोग उन दोनों के युद्ध के विकल्प के रूप मे सदेश-वहन की याचना मौलिक भ्रात प्रेम की प्रशंसा कर सकें .कल्पना कही जा सकती है। किन्तु सदेश-वहन की चर्चा "पश्चात्तापाद् व्युपरतिमहो मम्यपि प्रीतिमेहि के मध्य युद्ध की धमकी अस्वाभाविक ही प्रतीत होती है। भ्रातः प्रौढ प्रणयपुलको मा निगृह स्वदोभ्या॑म् । हां, इससे दैत्य की दुर्बुद्धि स्पष्टतः प्रतिपादित हुई है। तते स्निग्धे मयकि जनिता इलाघनीया जनः स्तात् इसके अतिरिक्त प्रारभ से अंत तक तीर्थकर पार्श्वनाथ का स्नेह व्यक्तिपिचरविरहजं मुञ्चतो पापमुष्णम् ॥" मौन-धारण विस्मयोत्पादक है। काव्य के अंतिम स्थल को पढ लेने के बाद ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह दैत्य किन्तु दूसरे ही क्षण वह दैत्य उन्हे यमराज के किसी पूजा-गृह में पाश्र्वनाथ के किसी चित्र के सम्मुख वक्त्रविवर मे भेजने और साथ ही यमराजपुरी का मार्ग ही सब कुछ कह सुन रहा है।
बताने के लिए प्रस्तुत दिखाई देता है। यह जानकर तो इस काव्य में अलकापुरी का वही मार्ग बताया गया बहुत विस्मय होता है कि वह यमपुरी का मार्ग बताना है, जो मेघदूत मे वणित है। नगरो, नदियों और पर्वतो भूलकर अपनी प्रेयसी को सदेश भिजवाने के लिए प्रलकाका वही चिरपरिचित वर्णन और वही काव्य-शैली अप- पुरी का मार्ग बताने लगता है। तीर्थकर को सदेशवाहक नाई गई है । इस काव्य के प्रत्येक पद्य मे मेघदूत की एक बनने के लिए मेघ का रूप धारण करने का परामर्श दिया या दो पक्तियों का प्राश्रयण है, जिससे कि मेघदूत मे गया है, जिससे कि वे दैत्य की प्राकृति एवं वर्ण का अनु. वणित विषय वस्तु को बहुत विशद एवं विस्तृत स्वरूप करण कर सके । तीर्थकर द्वारा मेघ रूप धारण करने का प्रदान किया जा सका है। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता यह कारण अधिक सगत प्रतीत नही होताहै, मानो यह काव्य मेघदूत की एक पद्यात्मक टीका ही "मय्यामुक्तस्फुरितकवचे नीलमेघायमाने है। किन्तु जहां जहा पूर्वजन्म की शत्रुता और तज्जन्य मन्ये युक्त मनुकृतये वारिवाहायितं ते। प्रतिशोध-भावना अभिव्यक्ति हुई है, वहां कवि की मौलि- मेघीभूतो बज लघु ततः पातशकाकुलाभिः कता स्वीकार करनी पड़ती है। युद्ध मे वीरगति प्राप्त दृष्टोत्साहश्चकितवाकितं मुग्धसिमाजमाभिः॥" होने पर स्वर्ग की अप्सगये स्वागतार्थ पातुर होगी, यह प्रलोभन किसी भी सामान्य मानव के लिए कम नही पाश्वनाथ को 'रो मत' (१-५६) यह कहना कृतिहोता । सभवतः इसी दृष्टि से वह दैत्य अपने पूर्व-शत्रु को कार की तरलता का ही मूचक माना जाएगा। खड्ग का कहता है .
एक प्रहार किसी प्रकार सह लेने से तीर्थकर का श्यामल "जेतुं शक्तो यदि च समरे मामभोक प्रहृत्य
तन प्रवहमान रक्तधारा में नहाकर अधिक कान्तिमान __ स्वर्गस्त्रीणामभयसुभगं भावुकत्वं निरस्यन् । हो जाएगा यह अनुरोध कवि की परिहासात्मक वृत्ति का पृथ्ख्या भक्त्या चिरमिह वहन राजयुद्धति सदि द्योतक है।
सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोदप्रियायाः ।।" १-२५ यात्रा-वर्णन मे मुरत एवं निबुवन-क्रिया का अत्यधिक "याचे वेवं मसिहतिभिः प्राप्य मृत्यु निकारान् वर्णन है। इसी प्रकार वारांगनामों के वर्णन में भी अत्यन्त
मुक्तो वीरश्रियमनुभवन् स्वर्गलोकेऽसरोभि.। उदारता से काम लिया गया है। इस विषय में वे नवं वाक्यं यदि तव ततः प्रेष्यतामेव्य तूष्णी कालिदास से कई कदम मागे बढ़े है । गुप्ताङ्गों के प्रति
सदेशं मे हर धनपतिकोषविश्लेषितस्य ॥ १.२६ प्रत्यक्ष ध्यानाकर्षण में भी उन्होने कृपणता प्रदर्शित नहीं