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अनेकान्त
की है। उदाहरणतयाः
बहुलता), रसोद्रेक तथा पूर्व कामोत्तेजना का चित्रण "सियानं सुरतरसिकं प्रान्तपर्यस्तवीणं" (१-६६) किया गया है:"बारस्त्रीमा निबनरति प्रेक्षमाणस्वमेनाम्" (१.१४)
बनरात प्रक्षमाजस्वमेनाम्' (१.१४) "तामुत्फुल्लप्रततलतिकागृहपर्यन्तवेशां "सिखस्त्रीणां रतिपरिमलर्वासितापित्यकान्तम्" (१-६८) कामावस्यामिति बहरसां दर्शयन्ती निषछ । "सस्तस्रग्भिनिषुवनविषो कीरतां दम्पतीनाम्" (.-१००) प्रस्थानं ते कपमपि सखे लम्बमानस्य भावि "स्वर्गस्त्रीणां निघुवनलताह सम्भोगदेशान्" (८०) शातास्वादो विवृतजघना को विहातुं समर्थः॥” (२-२८) "घुनां कामप्रसवभवनं हारि नाभेरषस्तात्" (:-११३) एक पद्य में स्कन्द को जिन-पूजा करने का इच्छुक कवि केवल सौन्दर्य-द्रष्टा ही नहीं है। उसे कुरूपता
बताया गया है, किन्तु इसके साथ ही शिव तथा उमा के को सही रूप में प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं है। वह
द्वारा स्कन्द के चरणों की पूजा करवाने में परम्परा-विरोध तो विकट दांतों वाली, दीर्घ नासिका युक्त, शिला से काटे
दिखाई देता है। यह कहने की भी आवश्यकता नहीं है शिथिल नाखूनों वाली और घोड़े के से मुह वाली स्त्रियों
कि यह उक्ति हिन्दू-धर्म के सर्वथा विपरीत है। की भोर दृष्टिपात करने का अनुरोध भी करता है
देवगिरि पर्वत के बाद चर्मण्वती, सिन्धु व सीता रम्यभोणीविकटवशनाः प्रोधिनी वीर्षघोणाः ।
मादि नदियो तथा ब्रह्मावर्त, कुरु प्रदेश, सारस्वत भूमि पीनीत जस्तनतटभराग्मन्दमन्दं प्रयान्तीः ।
एवं कनखल आदि प्रदेशों को पार करके गगा-तट पर प्रावक्षुण्ण प्रशिथिलनरवा वाजिवक्त्राः प्रपश्ये
पहुँचने का निर्देश दिया गया है। इसके मागे हिमालय स्तस्मिन् स्थित्वा वनचरवषभक्तकुब्जे मुहूर्तम् ।
पर्वत का वर्णन करते समय उसे मेघों से अनुल्लंघनीय
पर्वत
१७३ बताया है। प्रतः हिमगिरि के निकटवर्ती क्रोञ्चरन्ध्र से पग्ध मरण्यों में मेघागमन से पूर्व अर्थात् वर्षा हुए बिना होकर आगे बढ़ने के लिए परामर्श दिया गया है। अलकापृथ्वी का सुरक्षित होना सभव नहीं है। मतः इस प्राधार पुरी के वर्णन मे छोटे-छोटे क्रीड़ा पर्वतों और रम्य प्रासादो पर मेघ की मासन्नता का मनमान असहज ही कहा का उल्लेख उपलब्ध है। वहाँ की सुन्दरियो की मनोहर जाएगा। इसी प्रकार मेघों को देखे बिना मयरों का प्राकृति को देखकर लज्जावनत लक्ष्मी द्वारा अपने बाल नृत्यरत होना भी प्रस्वाभाविक ही प्रतीत होता है
नोचने तथा प्रलको का विसर्जन करना विचित्र कल्पना "स्वामासनं सपदि परिका मातुमहन्त्यकाले
का परिचायक हैश्रुत्वा केकाध्वनिमनुवनं के किनामुन्मवानाम् ।
"दृष्ट्वा यस्याः प्रकृति चतुरामाकृति सुन्दरीणां बर्हो नटितमपि प्रेक्ष्य तेषां सलील
लोक्येऽपि प्रथमगणनामीयुषां जातलज्जा। बग्पारण्येष्वधिकसुरभि गन्धमाघ्राय गोयाः।" मन्ये लक्ष्मीः सपदि विसृजेदेव संलुच्य केशान्
(१-५३) हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्वानुविधम् ॥"(२-१०५) इस काव्य के द्वितीय सर्ग में जहाँ मेघदूत की दो अलकापुरी मे अबुवाह की पत्नी, जो कि पूर्व-जन्म पंक्तियों के आधार पर पद्य-रचना की गई है, उसमें कवि- मे वसुन्धरा थी, को विरहाकुल बताते समय उसके सौन्दर्य कल्पना के लिए अधिक स्वतन्त्रता नही है। उदाहरणतया का चित्रण किया गया है२५वें पद्य में गंभीरा नामक नदी के नाम की दो बार "तस्याः पीनस्तनतटभरात्सामिनम्राप्रभागा उक्ति द्रष्टव्य है। किन्तु कालिदास की "ज्ञातास्वादो निश्वासोष्णप्रदवितमुखाम्भोजकान्तिविरुक्षा। विवृत अघना को विहातुं समर्थ." इस प्रसिद्ध पंक्ति में चिन्तावेशात्तनुरपचिता सालसापाङ्गवीक्षा निहित भाव-सप्रेषणीयता को अधिक विशद बनाया गया जातामन्ये शिशिरमथिता पधिनीवान्यरूपा ॥ (३-२५) है। इससे सम्बद्ध पद्य मे गंभीरा नदी के प्रतीक से नायिका अनेक पद्यों में उसके द्वारा पूर्वजन्म के पति (वसुभूति) की जंधामों के नग्न होने से प्रफुल्ल लता-प्रदेश (रोम- का स्मरण तथा पुन. उसकी प्राप्ति की काशा प्रदर्शित की