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जंन चम्पू काग्यों का अध्ययन
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है। कही तो अलकृत छन्द मात्र के ही दर्शन होते है। अपनी कविता के विषय मे स्वयं पहंदास ने कहा है हेतूप्रेक्षा से सम्पन्न उक्ति वैचित्र्य का एक सुन्दर उदा- कि वह कोमल-चारू-शब्द-निचय से सम्पन्न है। भगवान्
की भक्तिरूपी बीज से, इस कविता लता का उद्भव यत्सौपानवलोक्य निर्जरपतिक निनिमेषोऽभवत् । हुमा है। विविध व्रत इसके पल्लव एव भनेक पलंकार यस्या वीक्ष्य सरोजशोभि परिखां गंगा विषादं गता।
इसके पुष्प-गुच्छ है। ऋषभ कल्पवृक्ष से लिपटी यह यत्रत्यानि जिनालयानि कलयन् मेरुः स्वकार्तस्वरं।
कविता-लता व्यग्य की श्री से सुशोभित हैस्वीचके च बलद्विषं सुरपुरी यां वीक्ष्य शोकाकुला ॥१॥१४॥ जातेयं कवितालता भगवतो भक्तयाण्यशीजेन मे,
कथा का उपसंहार करते हुए हरिचन्द्र का यह निम्न- चंचकोमल चारुशम्बनिचयः पत्र: प्रकामोन्जवला। लिखित श्लोक, केवल तथ्य का वर्णन मात्र करता है। वृत्तः पल्लविता तत: कुसुमितालंकारविधित्तिभिः,
गद्य-पद्य के समन्वित मानन्द को हरिचन्द्र ने अज्ञात सम्प्राप्ता वृषभेशकल्पतरू व्यंग्यधिया पर्वते ॥१२ यौवना वय. सन्धिप्राप्त नायिका-प्रदत्त मानन्द के समकक्ष गद्य काव्य की भांति अनुप्रासमयी-समस्त-पदावलीरखा है । इस चम्पू काव्य का मुख्य उद्देश्य, जीवन्धर के संपृक्त भाषा में नगरी वर्णन से इसका मारम्भ हुमा हैचरित के माध्यम से जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन अथ विशालवीचिमालाविक्षिप्तविविध मौक्तिकपुत्रएव उसे लोकप्रिय बनाने का प्रयास करना था। प्रन्त के संजातमरालिकाभ्रमसमागतदढालिंगन मंगलतरंगित..." दो श्लोक भरत-वाक्य है, जिनमें कवि ने जैनतम एव
रजताचलस्योत्तर श्रेण्यामलकाभिधानापुरी परिवर्तिता ।। अपनी सरस तथा अलंकृत वाणी के स्थान रूप से चिर
स्तबक । जीवि होने की कामना प्रकट की है।
कथा के उपसंहार में अहिंसा के प्रभाव का वर्णन पुरुदेव चम्पू-पण्डित प्रवर पाशाधर के शिष्य महत् किया गया है। और श्रोतामों की सर्व जीव दया की पोर या अहंदास की यह रचना जैन सन्त पुरुदेव का जीवन- उन्मुखता प्रदर्शित की गई है। वृत्त प्रस्तुत करती है। प्राशाधर के शिष्य होने के कारण
इस ग्रन्थ के पृ० १४७ (२५४) मे अज्ञात कर्तृक प्रहदास का समय भी १३वी शताब्दी का उत्तरार्ध ही है।
'जैनाचार्य विजय' नामक चम्पू का उल्लेख है। डी. सी. इनकी अन्य रचनाए है-मुनि सुव्रत काव्य एवं भव्यजन
२६/६७४६ मद्रास लायब्रेरी के इस ग्रन्थ का अध्ययन कंठाभरण।
प्रावश्यक है। प्रादिपुराण, उत्तरपुगण एव मुनि सुवतपुराण में
पृ० २०० मे यशोधरचरित सम्बन्धी जैन ग्रन्थों की पुरुदेव का चरित वणित है। यह कथा पहले गौतम नामक
मूची दी है उसमें कई अन्यकारों के नाम गलत हैं। क्षमा गणभृत् ने श्रेणिक नामक राजा को सुनाई थी।
कल्याणादि के तो प्रकाशित हो चुके हैं। इस सम्बन्ध में श्रीमद गौतमनामधेयगणभूत् प्रोवाच या निर्मला । मेरा खोजपूर्ण लेख दृष्टव्य है। यशस्तिलक सम्बन्धी २-३ स्यातनिकभूभते जिनपतेराबस्य रम्या कथाम् ॥ महत्त्वपूर्ण स्वतत्र अध्ययन भी प्रकाशित हो चुके हैं। इस तो भक्तव चिकीर्षतो मम कृतिश्चम्पूप्रबन्धात्मिका। प्रन्थ का ६१ पृष्ठों का विशिष्ट अध्ययन भी पठनीय है। बेलातीतकुतूहलाय विदुषामाकल्पमाकल्पताम् ।१-१६॥
चम्पू मण्हनादि-कई श्वे. जैन चम्पू काव्यों का अन्य जैन चम्पू काव्यो के सदृश्य ही इसमे भी जिन- इस अन्य में उल्लेख तक नहीं है उस सम्बन्ध में फिर कभी वन्दना है।
स्वतंत्र रूप से प्रकाश डाला जायगा।