Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 368
________________ शोष-कण: चंपावती नगरी ३३५ लिए खुदाई का काम किया। तब तलघर मे यह मूर्ति वीतरागी सुलक्षण वाली है। इसके दर्शन से शोक, मोह, निकली। यह वार्ता ज्ञात होते ही वहां के कोटयाधीश क्षुधा, तृषा नष्ट होकर धर्मात्मा मानद सागर में डूब माहु मदाशिव राव राघोजी रणदि ने राजा से यह मूर्ति जाते हैं। चालीस लक्ष रुपया देकर मोल ली। और उस सदाशिव इस पर से वहां के किले में अभी भी जिनमदिर होने सेठ ने प्राज जहां मदिर है उसके उत्तर बाजू की गली मे की शंका पाती है। स्थानीय लोग किसी चंपावती देवी का सुन्दर मदिर बनाया, प्रतिष्ठा के लिए विशालकीति के वह स्थान बता कर उस देवी मे इस नगरी का नाम मठ के पंडित देवेन्द्र को बुलाया गया। उन्होंने दक्षिणाभि चंपावती पडा होगा। ऐमा बताते हैं। इस किले में सरमुख उस मंदिर को अयोग्य जान कर वह घरमशाला बना कारी तौर पर उत्खनन की पावश्यकता है। प्रयत्न करने दी। बाजार में के बड़े बाडे मे मदिर बना कर शाली पर भी बीड जिले का गजेटियर मुझे देखने को नहीं वाहन शके १५४० माघ शुक्ल सप्तमी को यथा विधि मिला। अगर मिलता तो कुछ अधिक प्रकाश जरूर वहा मूति की स्थापना की। इस समय भी बड़ा जन पड़ता। मैं प्राशा करता है, इतिहास संशोधक इसके लिए समुदाय एकत्रित हुमा था। प्रयत्न करेगे। जिन भाइयों ने मुझे यह मराठी कागद सफेद पाषाण की यह मूर्ति शुक्ल ध्यान युक्त परम भेट दिया उनका मैं प्राभारी हैं। प्रस्तु । अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत संस्कृत कर्मप्रकृति डा० गोकुलचन्द्र जैन प्राचार्य, एम. ए. पी-एच. डो... कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची में अभयचन्द्र तीन भेद दिये गये हैं। जमके बाद द्रव्यकर्म के प्रकृति, सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत कर्मप्रकृति की सात पाण्डुलिपियो का स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद बताये हैं। परिचय दिया गया है। किसी भी पाण्डुलिपि पर लेखन प्रकृति के मूल प्रकृनि, उत्तरप्रकृति और उत्तरोत्तरप्रकृति, काल नहीं है। सभी की लिपि कन्नड है और भाषा ये तीन भंद है । मूल प्रकृति ज्ञानावरणीय प्रादि के भेद से संस्कृत । पाठ प्रकार की है और उत्तर प्रकृति के एक सौ पड़तायह एक लघु किन्तु महत्वपूर्ण कृति है। इसमें मग्ल लीस भेद हैं । अभयचन्द्र ने बहुत ही सन्तुलित शब्दो में संस्कृत गद्य में सक्षेप में जैन कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन इन सबका परिचय दिया है। उनरोनर प्रकृति बन्ध के किया गया है। पहली बार मैंने इसका सम्पादन और विषय में कहा गया है कि इसे वचन द्वारा करना कठिन हिन्दी अनुवाद किया है । विषय के प्राधार पर मैंने पूरी है। इसके बाद स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध का कृति को छोटे-छोटे दो मौ बत्तीस वाक्य खण्डों में विभा- वर्णन है। जित किया है। कृति का प्रारम्भ एक अनुष्टुप मगल पद्य इसके पश्चात् मक्षेप मे भावकर्म और नोकर्म के विषय से होता है तथा अन्त भी एक अनुष्टुप पद्य के द्वारा ही में एक-एक वाक्य मे कह कर पागे संसारी और मक्त किया गया है। जीव का स्वरूप तथा जीव के ऋमिक विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ में कर्म के द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकमं ये से सम्बन्धित पांच प्रकार की लब्धियां तथा चौदह गण.

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