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हिन्वी बन कवि और काव्य
साहित्यकार को पार कर जाना पारमदास ही नहीं किसी किन्तु उनकी ग्रिफ्त से उबरे कतिपय ऐसे साहित्यकार भी भी वचनिकाकार के लिए प्रासान नही था। फिर भी थे जो 'मौलिक' लिख रहे थे। उनमें ब्रह्मरायमल्ल, रायउनका हिन्दी अनुवाद परिमार्जित, प्रासान मोर मूलभाव चन्द, पं० दौलतराम, महाराम, टोडरमल मादि स्यातिको पूर्णरूप से सहेज कर चला है। इतना ही बहुत है प्राप्त थे। उन्होने हिन्दी में लिखा और जो कुछ लिखा एक दृष्टान्त देखिए
वह उत्तमकोटि का काव्य था। केवल जैन-परक होने से "ताही समै विलास हलकारो प्रवेस करत भयो, राजा ही उसे साहित्य की कोटि से पृथक नहीं किया जा सकता। मोह की द्वारपाली जो लीलावती ताय कहत भयो है जैसे वैष्णव काव्य की गणना 'साहित्य' में होती है, वैसे लीलावती! माया मोक भेज्यो है, सो राजा मोह कू ही इसकी होनी चाहिए। पारसदास भी उन्हीं मौलिक प्ररज करि, सो लीलावती भी विलास को प्रागमन सुणि रचनाकारों मे थे। उनके भाव सुन्दर थे तो अभिव्यक्ति मोह राजा के निकट जाय नमस्कार करि अरज करत भी परिमाजित । उनकी एक कृति है-'प्रष्टोत्तरशतक' । भयी हे देव ! विलोम प्रायो है। राजा सुणि करि हरष इसमे १०० पद्य है। जिनदेव की भक्ति में समर्पित । सहित उठचौ रु लीलावती कू कहत भयो सीघ्र ही जिन सब कुछ हैं। अलख, निरञ्जन तो हैं ही, ब्रह्मा, विलास के मेजि। ऐमा हकुम सुणि करि द्वारपाली विलास विष्ण, महेश और बुद्ध भी हैं। सब सीमाए उनमे समाकर कू कहत भयो पाहु राजकुल मे राजा यादि करे है।।" निःसीम बन गई है। सकीर्णतामों की मेहें टूट गई हैं।
यहा माया ने अपने हलकारे विलास के द्वारा एक वे सबके ऊपर नहीं, सब रूप है। उन्होने सबको मिटाया संदेश गजा मोह के पास भेजा है। हलकारा राजद्वार नहीं, मिलाया है। वे प्रविरोधी है। इस सब के साथ पर पहुँचा और प्रवेश की पाना चाही। उसी का वर्णन अनुप्रास की छटा है, शब्दों मे लय है, वाक्यो में गति है। है। 'चतविशतिका' की वचनिका भी ऐसी ही है। उस सुगन्धि है तो उससे उठती लहरे भी हैमें विविध राग-गगनियो से समन्वित पदो का निर्माण "मलष निरंजन प्रकल प्रमानं प्रगम मरूपी लोक प्रमानं । किया गया है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसमे त ही देव सुदेव प्रदेवं सुरपति नरपति षगपति एवं ॥३॥ मलस्तति' की अपेक्षा गहरा रंग भरा जा सका है। हाँ, असम ब्सिम सम सुसम समानी ज्ञानी मानी ध्यानी दानी। इतना अवश्य है कि अनुभूति की कापी ठीक हुई है। ब्रह्मा विष्णु बुद्ध सुषषानी तू संकर शिव अमृत वानी ।। शब्दो का अनुवाद मरल है, अनुभूति का कठिन । पारम- सकर तुही रमाकर तुही तू नयन प्रभू जगसारं । दास ने इतना काम किया है। उसका एक पद है- तुही कलपतर काम सुषेनं तु ही चितामणि सोल्यनिषानं ॥६ "ग्रहो पास जिन राग दास मोहे प्रपनो जानि उबारो, वचनातीत गुणी गुणकन्द सील सिरोमणि नयनानन्द । मेरी निज निधि कर्म ठगन हैं इनको संग निवारो ! तत्त्वभूत तपरूप प्रमद तुम अविनासी हो जिनसम्बं ।११।" विषय चाह बसि करिक मोकू ध्यान छुड़ावत थारो,
'ब्रह्मबत्तीसी' पारसदास की एक समर्थ रचना है। इन संग दुष सहे बह दिन सं रूप न जाण्यो थारो,
इसमे ३५ छन्द हैं जो चार ढालों में लिखे गये हैं । इसका अब तुम भक्ति बहु निसि वासुर ज्यों होवे सुरझारो,
मुख्य स्वर है कि प्रात्मा ही ब्रह्म है, कर्म सथा नोकर्म पर जब लू मैं शिव-वास न पावं तब लूं चावू इनते,
हैं, पृथक हैं। गोरा काला रग पुद्गल का है, प्रात्मा गलि छहाय बयानिषि तारक विरब तुम्हारी ॥"२
का नहीं । प्रात्मा रंग-हीन है। उसका स्वभाव यह युग टीकामो और वनिकामो का प्रवक्ष्य था,
दर्शन-ज्ञान है। यह जीव इस बात को समझता नहीं। १. ज्ञान मूर्योदय नाटक की वचनिका, पारसविलाम, वह कर्मों के वणभूत होकर संसार को अपना घर मान बड़ौत वाली हस्तलिखित प्रति, पृ० ४५ ।
बैठता है। उमे विदित नहीं कि उसका पर उसी में २ चतुर्विशनिका की वचनिका, पारसविलास, बड़ोतवाली मौजूद है और वह अपने घर में ही रहता है। न तो उसमें हस्तलिखित प्रति, पृ.
कोई पर प्रविष्ट हो सकता है और न पर में वह जा