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समय का मूल्य
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१-तारीख का समाचार-पत्र २ अथवा ३ को प्रकाशित हो लौटाने पर चुक जाता है किन्तु समय का मूल्य प्रायु लेकर तो समय निकल जाने से वह पर्युषित (बासी) हो नि:शेष कर देता है। प्रत. 'श्व.कार्यमद्य कुर्वीत्' प्राने वाले जाएगा और उसे पाठक नही पढ़ेगे। वेला का मनतिक्रम कल का कार्य प्राज ही समाप्त कर लेना बुद्धिमान् का मूल्यवान् होने के लिए प्रावश्यक है। एक घूट पानी के लक्षण है। क्योंकि 'विचारयति नो काल. कृतमस्य न वा लिए तरसकर मरने वाले के शव पर सहस्र कलशों का कृतम्'-काल यह नहीं विचारता कि अभी किसी ने पानी उलीचना जैसे व्यर्थ है वैसे समय चले जाने पर कार्य समाप्त कर लिया है कि नहीं। उसका प्रागमन किया जाने वाला पुरुषार्थ भी फलशून्य हो जाता है। सर्प प्रकित और स्पर्श करुणारहित होता है वह सहज ही निकल जाने पर उसको रेखा को पीटना, सूख जाने पर अपना कार्य करने मे दक्ष है। राजामो का कोष, बीरो कूप से जल की प्राशा रखना, लटे हुए धनिक से याचना का बाहुबल, विद्वान् की विद्या, नारी के हाव-भाव, कृपण करना, वर्षाकाल बीतने पर खेत मे बीज वपन करना- का हाहाकार, वैद्य की प्रौषधिया, मित्रो के आश्वासन, ये अवसरहत व्यक्तियो के खेद का सवर्धन करने वाले है। प्रिया का बाहुपाश, पुत्रो की सेवा-परिचर्या किसी मे वह
जो समय का मूल्य रखता है, समय उसका सम्मान सामर्थ्य नही जो काल को द्रवित कर दे । राजा-रंक सभी करता है और जो समय खो देता है वह समय स खो सभी की जीवनमणिया काल की मुट्ठी मे धूलिकण होकर जाता है। समय के साथ खेलने वालो से समय भी खेलता समायी है। काल ने राम को बनवास दिया, श्रीकृष्ण को है किन्तु समय की समय धूप (पातप) के साथ लगी हुई साधारण व्याध के बाण से विद्ध किया, सती शिरोमणि छाया को देखकर जो प्रकाश का ममय रहते उपयोग कर सीता को परपुरुषगृह वासिनी बनाया-इसके क्रीड़ा लेते है, उन्हें अन्धकार घिरने पर प्राकृतित्व प्रभाव और कौतुको का अन्त नही । धनिक, निधन वीर-कायर, उदयअपनी अस्तित्व समाप्ति का भय नहीं रहता। किसी अस्त सब समय छन्द है। 'समय एवं करोति बलाबलम्'नीतिकार ने लिखा है
बल और अचल समय के सापेक्ष धर्म हैं । जिसने समय के "ब्राह्म समापयेत् पूर्वाम् पूर्वाह्न चापतिकम, इस रहस्य को जान लिया, वह जीवन का मूल्य पा गया। एव कुर्वन्नरो नित्यं सुनिद्रा समश्नुते।"
ससार जिनके कृतित्वो का फल भोवता है, ऋणी है नित्यमनणशायी स्यान्नित्यं दानोद्यतक्रमः ।
उन दार्शनिको, विद्वानो, वैज्ञानिको के पास उतने ही घण्टेनित्यमासन्जितं भार लघकुर्यादतन्द्रित ।"
मिनिट और अहोरात्र थे, जितने अन्य लोक मामा-यो के -नीतिसुधाकर
पास होते हैं। उन पर कृपा करते हुए समय ने अपने पाप 'प्रातः काल ब्राह्म महतं मे दिन के पूर्वाध का कार्य को लघ अथवा बृहत् नही बनाया । न राते होटी हुई और समाप्त कर ले और पूर्वाह्न मे सन्ध्यान्त कार्यों को निबटा न दिवस बढ-वही चौबीस घण्टी का अहोरात्र । किन्तु ले। ऐसा करने वाला मनुष्य रात्रि में सुख पूर्वक शयन उन्होंने इतने ही समय मे विलक्षण कार्य किये, रेल चलाइ, करता है। मनुष्य को प्रतिदिन ऋण रहित होकर सोना वायुयान उडाए, शीत ताप को नियत्रित किया, समुद्रो की चाहिए और दिनचर्या में किसी से लेने के स्थान पर किसी छाती पर यान तेराए और गुरुत्वाकर्षण को निद्रित कर को देने का उपक्रम अधिकतर करना चाहिए। जो कार्य चन्द्र तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी पलका भार प्राज मा गया है उसे थान्तिरहित होकर नित्य ही पर स्वप्न बसते थे और निद्रा दूर खड़ी शयन का मार्ग लघु (हल्का) करने का अभ्यास करना श्रेयस्कर है।' देखती थक जाती थी। भोजन की थाली प्रतीक्षा म क्योकि प्राज का कार्य यदि कल पर छोड़ दिया तो कल पर्वपित होती रहती थी और रात्रि-दिन अपनी गति पर का कार्य परसों पर छोड़ना पड़ेगा। इस प्रकार समयधन प्राते-जाते रहते थे । न उन्हे प्रानी सुधि थी और न पारऋण में बदल जाएगा और दैनिकचर्या गतिदिवस के ऋण वारो की। उनके चिन्तन किसी शोध में खोय रहते थे चुकाने में ही समाप्त करनी होगी। मुद्रा का ऋण मुद्रा और प्रांखे अपनी कल्पना को साकार करने में लगी रहती