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अनेकान्त
सौभाग्य से मुझे अधिकाधिक ग्रन्थों के अवलोकन का करवाया जाकर प्रकाशन भी शीघ्रातिशीघ्र करवाना सुमवसर मिलता रहता है। इसमें सबसे प्रधान कारण तो चाहिए। मेरी अपनी साहित्याभिरुचि है कि कोई भी अच्छा ग्रन्थ जैन साहित्य सम्बन्धी शोध प्रबन्ध भी कई अच्छेकही से भी प्रकाशित हुमा मुझे मालूम पड जाय तो जब अच्छे लिखे गये हैं पर उनमे बहत से प्रकाशित नहीं हो तक उसे प्राप्त कर पढ़ न लूं, तब तक एक बेचैनी-सी पाये। कुछ प्रग्रेजी मे, कुछ हिन्दी में निकले है उनकी अनुभव करता हूँ। शताधिक पत्र-पत्रिकाए मेरे 'अभय भी सूची पूरी प्रकाशित नही हुई। मैंने इस सबन्ध में जैन ग्रन्थालय' में प्राती हैं और जो नही पाती वे जहां पहले भी एक लेख प्रकाशित किया था कि जैन साहित्य कहीं भी माती हो मालूम होने पर उन्हे प्रयत्न पूर्वक संबधी किसने, किस विषय पर, किस विश्वविद्यालय के ममा कर या जाकर पढ़ लेता हूँ और उनसे जो नये प्रका- अन्तर्गत शोध प्रबंध लिखे या लिखे जा रहे हैं। उन उन शनों की जानकारी प्राप्त होती है, उन ग्रन्थो को मे से कौन-कौन से व कहा-कहा से प्रकाशित हुए हैं इसकी स्वयं मगाकर या अन्य ग्रन्थालयो से मगाकर सरसरी पूरी जानकारी जैन पत्रों में प्रकाशित की जाय। कोई तौर से अवलोकन कर ही लेता है। इसी के फलस्वरूप एक जैन शोध संस्थान इस कार्य में प्रयत्नशील हो कि पचासों शोध प्रबधादि के सम्बन्ध मे मेरे लेख प्रकाशित प्रति वर्ष सभी विश्व विद्यालयों से शोधकार्यों की जानहो चुके है। सम्भवत. उनमे से अन्य किमी जैन विद्वान ने कारी प्राप्त कर जैन सम्बन्धी जानकारी प्रकाशित करता २.४ ग्रन्थ ही क्वचित् देखे हों। बड़े-बड़े पुस्तक-विक्रनगमों रहे। साथ ही स्वतन्त्र रूप मे जैन सम्बन्धी न भी लिखा के सूचीपत्र भी मैं मगाता रहता है जिससे मेरी जानकारी हो पर प्रासंगिक रूप में भी अन्य शोध प्रबन्धो में जैन अद्यतन रह सके, और जो कुछ लिखू उसमे कुछ न कुछ मंबधी जो भी लिखा गया हो उसका सक्षिप्त विवरण ही नवीनता, मौलिकता और अज्ञात तथ्यो की जानकारी प्रकाशित किया जाता रहे। समावेशित हो सके।
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के डा. छविनाथ त्रिपाठी का __ मंस्कृत भाषा भारत की एक बहुत प्रसिद्ध एव वैज्ञा- एक शोध प्रबन्ध 'चम्पू काव्य का मालोचनात्मक एव निक भाषा है। उसमें सर्वाधिक साहित्य-निर्माण हुमा है। ऐतिहासिक अध्ययन' नामक ग्रन्थ चौखम्बा विद्या भवन सभी प्रान्तों में प्रान्तीय भाषामों के साथ सस्कृत में भी बनाग्म से सन् १९६५ मे प्रकाशित हुमा है। प्रागरा लिखा व पढ़ा जाता रहा है। अनेक विषयो एव अनेक विश्वविद्यालय से लेखक को इस प्रबन्ध पर पी. एच. डी. पोलियो की लक्षाधिक छोटी-बड़ी रचनाए सस्कृत भाषा की डिग्री प्राप्त हुई है। अन्य वास्तव मे ही बडी खोज मे अभिवृद्धि में अधिकाधिक सहयोग रहा है। जैन एवं परिश्रम से लिखा गया है। प्रकाशित और अप्रकाशित संस्कृत साहित्य का इतिहास' गुजराती में प्रो. हीरालाल २४५ चम्पू काव्यों का उसमे उल्लेख मिलता है। लेखक रसिकलाल कापड़िया, सूरत ने कई भागो में लिखा है। ने प्रस्तावना मे लिखा है कि "सस्कृत के प्राचार्यों ने गद्यजिसका प्रथम भाग कई वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था। पद्यमय काव्य को चम्पू की मजा दी है। प्रध्याप्ति और दूसरा भाग भी काफी छप चुका है। यद्यपि उनके लिखित प्रति व्याप्ति-दोष से रहिन चम्प की परिभाषा निम्नइतिहास में अनेक रचनाए मा नही पाई, फिर भी बहत लिखित श्लोको मे दी गई हैबड़ी जानकारी इस ग्रन्थ के पूरे प्रकाशित होने पर मिल
"गद्य पद्यमयं श्रव्यं सबन्ध बहुणितम् । ही जायेगी। हिन्दी और अग्रेजी मे भी ऐसे ग्रन्थ प्रकाशित शालं कृत रसः सितं, चम्पुकाव्यमुदाहृतं ।." होने ही चाहिए । पाश्र्वनाथ जैन विद्याश्रम, वाराणसी की चम्पू काव्य धारा का ४०० वर्षों का इतिहास शिलाजैन साहित्य के इतिहास के प्रकाशन की योजना में एक- लेखों की गोद में छिपा है। समास बाहल्यता प्रौर एक विषय के समस्त जैन साहित्य का परिचायक ग्रन्थ अलङ्करण की प्रवृत्ति से युक्त मिश्र शैली का सर्वोत्कृष्ट तैयार करवाया जा रहा है। इस काम को और तेजी से उदाहरण हरिसेण की 'प्रयाग प्रशस्ति' है । २०वी शताब्दी