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बनेकान्त
है। यदि इसे यों ही गंवा दिया तो इससे बढ़कर हानि महान् व्यक्ति वह उदार होते हैं। वे इस संसार में क्या हो सकती है।
विपुल यश, धन, वैभव, बल मादि उपाजित करते है तथा कदाचित् नदी का प्रवाह लौट सकता है, पतझर के दोनों हाथों उसे संसार को दान में देते हैं। किन्तु समयपश्चात् वसन्त का पुनरागमन हो सकता है, घटी यत्र को दान मे वे बहुत कुपण होते है। सामान्य लोग हंसी-ठट्ठे शलाका (सूई) बारह घण्टे के अनन्तर पुनः उसी प्रक मे, मनो-विनोद मे, चलचित्र दर्शन-मादि में समय को पर लौट पा सकती है. पुनः पुनः उसी पूर्व क्षितिज पर जिस प्रकार अपव्यय के गर्त मे डालते है, उसे वे सोच भी सूर्य का प्रत्यावर्तन हो सकता है किन्तु गया हुमा समय नहीं सकते। मणिबन्ध (कलाई) पर बधी हुई घड़ी से अतिक्रान्तमुहूर्त फिर नहीं लौटता । 'प्रत्यायान्ति गता. अधिक वे हृदय में स्पन्द करती हुई प्राणपटिका की टिकपुनर्नदिवसा. ।' पवनवेग अश्व और लोकान्तरगाही टिक पर अधिक सावधान रहते है क्योकि उसकी गति विमान उसकी क्षिप्रता का अनुधावन नही कर सकते। समाप्त होने पर फिर "चाची" नहीं दी जा सकती। उसकी गति भी उपमा क्षिप्रगामी प्राधी से नहीं दी जा "विन्दुभिः पूर्यते घट."-"बंद-बूद जल भरहिं तड़ागा"सकती, उसके महत्त्व को अतोल मणिरत्नो की सम्पदा से के उदाहरण को वे क्षण-क्षण बचाकर चरितार्थ करते हैं। नहीं आंका जा सकता। वह अपने माप में सर्वोत्तम है, ऐसे लोग चौराहे पर नहीं देखे जा सकते, उन्हे थियेटरअनुपम प्रतितीय है। ससार की समस्त वस्तुमो का सिनेमाहाम की भीड़ में नही पाया जा सकता। वे किसी मूल्यांकन समय करता है । एक समय साधु भिक्षा के लिए ताम्बुलिक की हाट पर पान की गिलौरिया कपोल गह्वरो प्रबलित पाणि होता है और एक समय वही पाशीर्वाद मे दबाये नहीं दिखतं । उनका इन्द्र तो समय के साथ की मुद्रा में वरदानो की वृष्टि करता है। समय पर वर- चलता है। वे रात दिन समय मन्दिर की घटिया बजाते, सने वाला मेघ कृषि को स्फीन करता है और समयाति- समय मातृका के क्षण-पत्र पलटते, काल देव की स्मित क्रमण पर बही उसके विनाश का कारण हो जाता है। पारा में नहाते अपने को कृतार्थ करते है। क्योंकि, जो ठरे लोह पर धनों की चोट व्यर्थ है।
समय की ध्वजा को अपनी श्वासवायु से ऊपर लहराता मनुष्य के अध्ययन, अर्थोपार्जन, श्रम तथा विश्राम है, उसे कृतज्ञ होकर समय कीर्ति प्रदान करता है। समय सभी के लिए एक ममय निश्चित होता है। यह जीवन के साथ मित्रता रखने वालो ने यहा दोनो हाथों रत्न समय में विभक्त है। व्यर्थ समय खोने वालो को समय उछाने, मणिवर्षा की, सुख लूटा, मानन्द बाटा और जोते अग्नि में जलाकर भस्म कर देता है। सूर्य को उदयरथ पर हुए उत्तम लोको का पाथेय साथ ले गये "मायुगच्छति माम देख कर ममार अपने समय की निश्चिति करता पश्यत प्रतिदिनं याति भय योवन" प्रतिक्षण मायु समाप्ति है क्योकि वह वेनापनि है, समय के सकेत की सुइया को पार जा रही है। यौवन बीत कर वार्धक्य मा रहा उमकी रश्मियों में गतिशील है। सत्य है, जो धून के है। इसे समझाने को नीतिकार कहते हैंधनी है, लगन के पक्के और साहस के भण्डार है, ध्रव "अजनस्य अयं दृष्टवा बल्मीकस्य च संचयम् । सूची (कम्पास) के समान समय उनका मुख देखता रहता प्रवन्ध्यं विवसं कुर्याद बानाध्ययनकर्मभिः।" है। किन्तु जो मालसी हैं, समय, उनके ऊपर से उगते सूर्य
कज्जल की डिबिया में से बहुत स्वल्पपरिमाण में, के समान निकल जाता है और ऐसे दीर्घ सूत्री व्यक्ति जब अलि के प्रमभाग पर लेकर उसे पासों में लगाया जाता कछ करने के बांधन बाँधते हैं तब तक जीवन की सन्ध्या पर इस पल्पमात्रा में लेते लेते एक दिन कज्जल की घिर जाती है और मृत्यु के महातिमिर मे वे मिट जाते हैं। रिबिया रिक्त हो जाती है । इसी प्रकार पीटे वल्मीक का इसलिए रात्रि की काली चादर फैलने से पूर्व सारे काम निर्माण करते है पीर पृथ्वी मे बिल बनाकर एक-एक कण निबटा डाले,कही ऐसा न हो कि एक दिन के लिए छोड़ा मुंह में भर कर बाहर रखते जाते हैं, बोरे समय में यहाँ इमा काम किसी दूसरे जन्म के लिए शेष रह जाए। मिट्टी कार हो जाता है। यह कज्जल की समाप्ति और