Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 399
________________ अनेकान्त थीं । अर्जुन के लक्ष्य समान उनके ममक्ष सम्पूर्ण वृक्ष, को कहा-हनुमान जी ने उत्तर दिया, मुझे आज ही पल्लव और चिड़िया नहीं, केवल चिड़िया की मांख होती लंका पहुँचना है अतः मार्ग मे क्षण काल भी विश्राम नहीं थी, जिसे वह देखते थे। जब और लोग निशीथोत्तर ले सकता । 'न स्थातव्यमिहन्तरा' (वा. रामायण)। ऐसे प्रवहमान शीतल पवन का सुखस्पर्श लेते सोये रहते हैं। अथक पुरुषार्थी ही गन्तव्यों की श्री से परिणीत होते हैं। कुछ कर गुजरने की धुन रखने वालों की नींद उड जाती प्राचार्य सोमदेव ने लिखा है-"धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं है। 'सूमा-पालक-चूका'-गली में सब्जी बेचने वाले से लवोऽपि सगह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिक" धर्म, शास्त्र भी उन्हें प्रबोध के स्वर सुनायी देते हैं, वे इनका अर्थ तथा धन का प्रतिदिन लवमंग्रह भी एक दिन सागर के करते हैं, 'सोया पलभर तो चूका' और उसी क्षण उठकर समान प्रचुर-पुष्कल हो जाता है। अकर्मण्य तथा समय कार्य में लग जाते हैं। उन्हे जगाने के लिए, कर्त्तव्य पथ को न पहचानने वाले मनुष्य मांसवृक्ष हैं, जो अपने ही पर पारूढ़ करने के लिए बडे २ शख फूंकने की, प्रबोध- स्थान पर खडे-खडे वसन्त की बहारों को पुकारते रहते पाठावली पढाने की पावश्यकता नही होती, उनका सचेत हैं। किन्तु धीमन् पुरुष प्रतिदिन अपने कार्यों की मानसअन्तर्मन ही प्रेरणा देता है। राजहस को मानसरोवर का दैनन्दिनी रखते है। वे प्रतिसायम् लिखते हैं कि पाज का मार्ग स्वय परिचित होता है तथा पवनवेग चलने वाले दिन कैसा बीता। रहट के समान गत्रि-दिवस के कूप प्रश्व चाबूक की मार खाने का स्वभाव नहीं रखते। में बता-निकलता मनुष्य यह तो सोचे कि मैं रिक्त है महात्मवों का मनोबल, उत्साह और अषित धैर्य ही कि भग। उन्हें सिद्धियो के समीप ले जाता है। उन्हें प्रतिक्षण किसी 'प्रत्यहं पर्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । न किसी क्षेत्र से प्रामत्रण अाह्वान मिलते रहते है कि किन्नु मे पशुभिस्तुल्य किन्नु सत्पुरुषस्तथा ।।" पाइये, यह कार्य प्रपूर्ण है यह कार्यक्षेत्र अनदेखा है, ये जिसने स्वयं अपना पर्यालोचन करना सीख लिया, पवितया प्रजानी है है-पापका प्रप्रतिहत उत्माह इन्हे उमे अनुशासन की आवश्यकता नही। उठते हुए सूर्य के पूर्ण करेगा, देखेगा तथा जानेगा। समयमन्द व्यक्तियो के साथ जो उठ खडा होकर उद्यमायं नही चल देता, उसे सामने गत-दिन अनेक प्रायोजन, कार्य सिद्धियां होती मौभाग्यो की उषा के दर्शन नही मिलते । सूर्य की सहस्रों रहती है परन्तु वे उन्हे पहचान नहीं पाते, उन्हे देख नहीं किरण घर-घर में प्रवेश कर जगत् को शय्या त्याग करने सकते। और सोचते रहते है कि 'कब प्रभात होगा। के लिए करती हैं परन्तु जिस करम (ऊट) को कंटक ही कमल खिलेगा और सम्पुट में बन्द भंवग उड़ने का मार्ग पसन्द हैं वह प्रभात की हरी दूब दूसरो के लिए छोड कर पायेगा'-परन्तु गजराज प्राकर उस प्रतीक्षक के पाशा मोया रहता है। इसी हेतु मे कहा गया है --जो सोता है कमल को तोड देता है, पंगे से कुचल डालता है। प्राण वह खाता है। 'चरैवेति चरैवेति'-ममय गतिशील है, भ्रमर देह कमल को छोड कर उड़ जाता है। गत भर चलते रहो, चलते रहो, नही तो पीछे रह जानोगे। सूर्य के स्वप्नो को चिन्तन चिता की राख बन कर उड़ पूर्व से उड कर पश्चिम पहुँच चुका होगा और तुम अभी (बिखर) जाती है। किसी नीति धुरन्धर ने प्रबोध दिया। घर से निकलने की तैयारी कर रहे होगे। निकलतेहै कि निकलते रात्रि हो जाएगी तो मार्ग की पगडंडी जीवन से "करिष्यामि करिष्यामि करिष्यामीति चिन्तया । भटक कर श्मशान की मोर मुड जाएगी। प्रत्तः समय के मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामीति विस्मृतम् ॥" कदम दबाते चलो समय की प्रांख मापते बढो, काल को जीवन भर सोचते बैठे रहे कि अमुक कार्य कल कर अकेला मत छोडो उसे अपने साथ रक्खो नहीं तो धात लूंगा, कर लूंगा, कर लूंगा परन्तु कल मर जाऊगा, यह एक करेगा। 'सूर्योदये चास्नमिते शयान विमुपति श्रीरपि बार भी नहीं सोचा। श्री हनुमान जी जब समुद्र लघन कर चक्रपाणिम्'-जो सूर्योदय और सूर्यास्त समय में सोता रहे थे तब मैनाक पर्वत ने उन्हें थोड़ी देर विश्राम करने रहता है, उसे लक्ष्मी छोड़ कर चली जाती है। 'दीर्घ

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