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भनेकान्त
से खिन्न होकर कार्य मे विरत हो गया उसे सिद्धि नहीं चरण एवरेस्ट के शिखर पर पहुँच जाते हैं। जो एक मिलती। क्योंकि
चरण के महत्व को नही ममझना वह गति की समग्रता "मालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न च शश्वत् प्रतीक्षिणः। नही पा सकता। न च लोक खाडीता न क्लीबा न च मायिनः ॥"
ममय चिन्तामणि है, कामधेनु है, वांछित धन है। ___ जो प्रालसी है, नमक है, मायाचारी है, लोग क्या उससे कुछ भी मांगो, पा जानोगे। समय श्रमाग्नि मे तप कहेंगे-ऐसे विचारमूढ होकर कर्तव्य कर्म से विमुख हैं, कर सुवर्ण बन जाता है, अवसर की सीपी में गर्भ-धारण तथा जो निरन्तर प्रतीक्षा करते रहते हैं कि अभी अच्छा कर मुक्ताफल हो जाता है, दुरधिगम समुद्र को मथकर नहीं प्राया, जब पाएगा तब अमुक कार्य करूँगा, इत्यादि रत्नराशि निकाल लाता है। संमार में जो कुछ किया विषम चिन्तन करने वाले कभी सफल नहीं होते, उनके गया है तथा किया जा सकता है वह समय द्वारा ही पास अनुकूल समय कभी नही पाता। वे अवसर का मुख सम्भव है। यदि समय नही है तो कार्य नही हो सकता। उसी प्रकार देखने को तरसते रहते हैं जैसे बन्ध्या पुत्र कार्य मिद्धि के लिए बड़े-बड़े उपकरण सहायक नहीं होते, प्राप्ति को। क्योकि अवसर स्वय तो किसी-किसी भाग्य- उसके लिए समय लगाना आवश्यक होता है, जो समय शाली के पूर्वोपाजित पुण्य से प्राप्त होता है अन्यथा उसे पर चक गया उसे सिद्धि के राजपथ से हटना पड़ता है। पुरषार्थी स्वयं पागे बढ कर पकड लाते हैं। किसी अग्रंज एक मिनट विलम्ब से पहुँचने पर गाड़ी चौबीस घण्टो के लेखक ने लिखा है कि ममय का मिर पीछ में गजा है। लिा निकल जाएगी और घण्टे भर पूर्व जाकर बैठने से यदि कोई उमको मामने पाने पर स्वागत कर ले तो वह
कर लता वह समय का दुरुपयोग होगा। प्रत: जिस कार्य के लिए जो उमी का मित्र होकर साथ देने के लिए प्रस्तुत हो जाता समय निश्चित है, वही ममय उसे दो। कोई प्रात.काल है किन्तु यदि कोई स्वागत के उस दुर्लभ प्रवसर को चूक का भोजन सन्ध्यावेला मे नहीं लेता, परन्तु ध्यान सामाजाए तो समय लौट कर चल देता है, क्योकि वह गजा है, यिक, स्वाध्याय के लिए वेला के प्रतिक्रमण को दोष दृष्टि पीछे में उसे कोई पकड नही मकता । इस लिए कुछ लोग से नही देखना । परन्तु क्रियाए तो समयपात्र मे ही क्षण-क्षण को मूल्यवान् बनाकर सम्पन्नता के शिखग पर शोभित होती हैं। कार्यकलापो का कोई न कोई समय जा पहुँचे और दूसरे घटे और दिवम गिनते हुए सीढिया मनात
निश्चित होता है . "काले पाठ स्तवो ध्यानं शास्त्र चिन्ता चढने का अनुकूल मुहूर्त देखते गर्त से अपना उद्धार नही
गुगै नति.' इसमें पाठ, स्तवन् ध्यान, स्वाध्याय तथा गुरु कर सके। किमी ने उचित ही पराम दिया है कि-
भवित सबको समय पर करना उचित कहा है। "न हि तमको
जमिन कटारे 'चलती हुई चिउंटी भी मौ योजन जा पहुँचती है और न अत्यायुष मत्रमस्ति-पायु बीत जाने पर कोई यज्ञ नही चलने पर महापराक्रमी गरुड पक्षो एक पद भी नही पहुँच किया जा सकत', सब प्राफिस, कार्यालय, दूकान, बाजार, पाता।' -
रेलपथ, वायुयान माकाशवाणी अपने अपने निर्धारित "गच्छन् पिपीलि को याति योजनानां शतान्यपि । समय पर क्रियाशील होते हैं। ग्राहक को यदि विश्वास अगच्छन् बनतेयोऽपि पवमेकं न गच्छति ।"
न हो कि अमुक दूकान अमुक समय पर खुली मिलती है सिद्ध है कि क्रियामिद्धि का निवाम पूरुषार्थ मे है, तो वह वहां नहीं जाता। विश्वास तथा अभिगमन का समय के माथ चलने में है न कि समय की प्रतीक्षा करते प्राधार समय पर वशता है । मूर्य, चन्द्र समय से बधे है। रहने में। चीनी कहावत है कि "हजार मील लम्बी यात्रा जीवन की प्रशस्ति नियमो मे हैं, अनियम से व्यभिचार एक कदम से प्रारम्भ होती है।"-हजार मील चलने के दोष उत्पन्न होते हैं। इसी हेतु से सस्कृत मे समय का लिए उठा हुमा प्रथम चरण उस मार्ग की दूरी को प्रतिपद प्रर्थ शपथ भी है, पण भी है और वेला भी है। समय न्यून करता जाता है। एक और एक दम बढाते-बढाते मानो, क्रियमाण कार्यों के साथ अनुबन्ध है, शपथ है। जो गन्तव्य समीप प्राता जाता है और साहसी प्रारोही के कार्य समय पर हो गया, वह प्रशसित हो गया। यदि