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अनेकान्त
माया जड़ है और यह चेतन । माया यहा ही रह जायेगी टूट गया-व्ययं चला गया। ऋषभदेव डिगने वाले नही मौर चेतन चला जायेगा । माया के पीछे लगन के कारण थे, उन्होंने क्रोध से नहीं, अपितु अपनी ध्यानाग्नि से उसे ही उसे संसार मे घूमना पड़ता है, अन्यथा संसार से जला दिया । यह प्रमाणित कैसे हो तो पारसदास का उनका कोई सम्बन्ध नही है। माया एक जबर्दस्त काम कथन है कि भगवान के श्यामकेश ही इसका सबूत है। करती है कि चेतन को अपनी असलियत मालूम नहीं होने उनकी दृष्टि मे जलते हुए प्रनग के धूम्र से उनके केश देती। यदि उसे मालूम हो जाये, तो चेतन खुद हट जाये काले पड़ गये हैं३ । पौर माया भी फिर उसे अपना मुंह दिखाने मे शरमावे। "हृदय तिष्ठना ध्यान अगिनि करि जाल्यो तुम सर्वग। वह फिर दिखायेगी ही नहीं। जैन और प्रजन अनेक प्रनंग ताकी धूम रूप ये मान श्याम केश हैं उत्तम प्रग॥" कवियों ने चेतन को माया से सावधान किया है। किन्तु पारसदास एक सामर्थ्यवान कवि थे। उन्होने धर्म को बात उसकी समझ मे नही पाती। पाण्डं रूपचन्द ने तो कवित्व की अनुभूतियों में ढाला। दूसरे शब्दों में धर्म को एक जगह खीझ कर लिखा-"चेतन अचरज भारी यह, अनुभूति परक बनाया। बिना कवि-हृदय के यह असम्भव मेरे जिय पाव, अमृत वचन हितकारी सतगुरु तुमहि है। कोई उपदेष्टा ऐसा नही कर सकता उनका काव्य पढ़ावै । सतगुरु तुमहिं पढ़ा और तुम हूँ ही ज्ञानी, तबहूँ जैनधर्म का उपदेश नही था, उसमे काव्यत्व था, तुमहिं नहिं प्रावै चेतन तत्त्व कहानी ।"१ अर्थात् बात रस था। चेतन समझ नहीं पाता, जबकि वह स्वय ज्ञानरूप है और आध्यात्मिक रचनाओं के साथ-साथ पूजा और जयसमझाने वाला भी ज्ञानी है। पारसदास ने भी उसे मालामो के निर्माण में भी पारसदास की अधिकाधिक समझाया२
रुचि थी। इसमे उनका मन रमा। उन्होने पार्श्वनाथ जी "माये कौन गति से मोर जावोगे कहांयी, की पूजा, देवसिद्धि पूजा, देवसिद्धि पूजा बृहत्पाठ, जम्बूतुम माया नहिं लार लग रहेगी इहांयी। स्वामी की पूजा, चमत्कार जिनपजा, रतनत्रय पूजा, चेतन अनुभव विचारि बेखौ उर मायौं, सोलहकारण की जयमाला, दशलाक्षण की जयमाला,
मुबह वृथा भ्रमो माया के तायौं।" रतनत्रय की जयमाला, पोडशकारण मत्र की जयमाला की पारसदास उत्प्रेक्षा के उकेरने में निपुण थे। कही- रचना की। सभी मे भक्ति है और कवित्व पूजा-साहित्य कहीं तो उनकी निराली छटा है। उन्होने ऋषभदेव-स्तोत्र भक्ति का महत्त्वपूर्ण अंग है। कवि द्यानतराय इस क्षेत्र का निर्माण किया था। ऋषभदेव अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत के प्रसिद्ध कवि थे। उनके मार्ग को पारसदास ने प्रशस्त को राज्य-पाट देकर वन में तप करने चले गये। वहा किया है। ध्यान मे लीन होकर वे जिन बने। जिन का अर्थ है इनके अतिरिक्त उन्होंने द्वादशाग दर्शनपाठ, तीन जीतने वाला । अर्थात् उन्होने इन्द्रियो को, मन को, माया लोक त्यालय की बदना, सुमति बत्तीसी, राजुलबत्तीसी, को, मोह को जीत लिया। सबसे बड़ा होता है मोह और कुगुरुनिषेध पच्चीसी, सम्यक्त्व बहत्तरी दर्शनपाठ, हस्तिनाउसका शक्ति-सम्पन्न सनानी होता है अनग । तपियो को पुर पाठ, रावण विभीषण रास अरहन्त भवित पाठ, मनग बहुत परेशान करता है। उनके ध्यान को विचलित सरस्वती अष्टक, भारती, बारह भावना, चौबीसी पद, करने के लिए नामा उपाय रचता रहता है। शकर को चौबीसी तीर्थङ्कर स्तुति, ऋषभदेव स्तोत्र, तेरहपंथ स्तुति, क्रोध आया तो उन्होने तो उसे भस्म ही कर डाला। पद आदि का निर्माण किया। उनकी कृतियां धार्मिक है विश्वामित्र डिग गये तो उनका दस हजार वर्ष का तप और साहित्यिक भी। यह ही उनकी विशेषता है। १. देखिए परमार्थ जकड़ी मग्रह, पण्डे रूपचन्द, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई।
३. ऋषभदेव स्तोत्र, वां पद्य, पारसविलास, प्रति वही, २. पद, दूसरा, पारसविलास, प्रति वही, पृ०७३ ।
पृ० ७८।
(क्रमशः)