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अनेकान्त
सकता है। वह स्वयं ब्रह्म है अपने अन्दर ही रहता है। जिसका रूप ज्ञायक परमात्मा का हो, जो तीन लोक का ब्रह्म कोई दूसरा नहीं है । अतः उसका जंगल, मन्दिर भूप हो और उसे संसार में भटकना पड़े, इससे अधिक
और मस्जिद में ढूंढना भी व्यर्थ है। इसी को बनारसीदास दुखद घटना क्या होगी। पारसदास ने लिखा हैने लिखा है कि तू कस्तूरी मृग की भांति अपने भीतर
"नायक परमातम तथा चेतन तेरो रूप। बसी अपनी सुवास से परिचित नही है और वन में इधर
चेतो या संसार ते तीन लोक के भूप॥"६ उघर ढ़ता फिरता है। उनसे पूर्व महात्मा मानन्द
पारसदास की 'बारहखड़ी' नाम की कृति भी सामर्थ्यतिलक ने 'पाणंदा' में माना था "अठसठि तीरथ परि
वान है, उसमें १२ पद्य है। हीरानन्द जी के अनुरोध से भमइ, मूढा मरहिं भमंतु । अप्पा बिन्दु न जाणही, पाणंदा
उन्होंने इसकी रचना की थी। बारहखडी के प्रत्येक प्रक्षर घट महि देउ प्रणतु ॥"३ यहा पारसदास का कथन है
पर एक-एक पद्य की रचना कर कृति को पूर्ण करना जैन "ठाकुर ठाठ करो निज घर में क्यों पर द्वार मिहारो।।
कवियों की प्राचीन परम्परा है। बारहखडी का सम्बन्ध पर सब जड़ है तू चिन्मरति सुवरूप निहारो॥"४
लोकभाषा की वर्णमाला से है और जैन शैक्षिक पद्धति में यह जीव नही जानता कि वह स्वयं परमात्म रूप है।
लोकभाषा का अध्ययन अनिवार्य था। प्रतः उसे सबसे इस न जानने के कारण ही उसे ससार मे भटकना पडता
अधिक प्रश्रय जैन आचार्यों ने दिया। स्वयम्भू के 'पउमहै। यदि वह स्वयं अपने को जान जाये तो शरीर की
चरिउ' मे एक जगह वट वृक्ष का रूपक आया है, उसमे साज-संभाल की भोर से उनका मन हट जाए। उसे
वट रूपी उपाध्याय विविध पक्षियो को कक्का, फिक्की, विदित हो जाये कि वह शरीर से जुदा है, शरीर का
कुक्क, केक्कई, कोक्क उ प्रादि पढ़ा रहा है । यह तो एक पालना-पोषना व्यर्थ है। यह अवसर फिर न मिलेगा।
प्रन्थ का एक उदाहरण है। अनेक जैन कवियों ने अपनी न जाने फिर मनुष्य-भव मिला न मिला। प्रत. अब तो
मृक्तक रचनायो मे बारहखडी के प्रत्येक वर्ण पर भी चेत ही जाना चाहिए। यदि अब चूका तो संसार में भट
काव्य-रचना कर उसके प्रति अपना अनन्य भाव दिखाया कने के अतिरिक्त और कुछ न रह जायेगा५ । वह चेतन
है। उनमें अजयराज पाटणी की 'कक्काबत्तीसी', कवि १ गोरो कालो रंग रगीली पुद्गल तणो जी प्रभाव, अमरविजय की 'अक्षरबत्तीसी', सिवजी की 'कक्काबत्तीसी'
मातम के नहिं रग है जी दरसन ज्ञान स्वभाव । कवि चेतन की 'अध्यात्म बारहखड़ी', सूरत की 'जैन घर तेरो तो माय है जी तू घर ही के माय, बारहखड़ी' और कवि दत्त की 'बारहखड़ी' प्रसिद्ध है। तो मैं पर नहिं प्राय है जी तू पर मैं नहिं जाय, इमी पक्ति मे पारसदास भी आ जाते है। उनकी रचना रे भाई तू निज ब्रह्म विचारि॥
अध्यात्म परक है। मौलिक है, शैलो के अतिरिक्त सब ब्रह्मबत्तोसी, पद्य ३, ४ ॥
कुछ अपना है। उन्होने पूर्व कवियो के भावो की नकल ज्यों मृगनाभि सुबास सौ ढढत वन दौरे ।
नही की है। अजयराज की 'कक्काबत्तीसी' में पाण्डे रूपत्यौं तुझमे तेरा धनी तू खोजत पौरे ।।
चन्द के 'परमार्थी गीत' के अनेक स्थल हू-बहू है। एक करता मरता भोगता, घट सो घट माही।
उदाहरण देखिएज्ञान बिना सद्गुरु बिना, तू समुझत नही ॥
दवा निज दरसन बिना जिय, देखिए बनारसीविलास ।
जप तप सब निरथ रं लाल । ३. देखिए 'माणदा' की हस्तलिखित प्रति, आमेर शास्त्र
कण बिन तुस ज्यों फटक ते जिय, भण्डार, जयपुर, पद सख्या ३१ । ४. ब्रह्मछत्तीसी, १२वा पद्य, पारसविलास, बड़ोतवाला ६. वही, १९वां पद्य, पृ.१०।
प्रति, पु०५। ५ उपदेश पच्चीसी, ११, १७, २८ पद्यों का भाव, वही, ७. अपभ्र श भाषा और साहित्य डा. देवेन्द्रकुमार जैन पृ० १०॥
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृ० २७७ ।