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हिन्दी जन कवि और काव्य
अन्य जातियो के घर थे। अर्थात् एक लाख घर की समय पर हई। उनमें 'उपदेश-पच्चीसी' पर रचना 'भाबादी थी। अतः जन-सख्या एक लाख से अधिक ही काल-वि० सं० १८६७, ज्येष्ठ शुक्ला १५ दिया हमा होगी। ऐसा भग हुमा नगर था। अवश्य ही इसका है। इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि उनका कारण वहां का सुशामन होगा, साधारण जनता अपने निर्माण कार्य वि० सं० १९६७ से १९२० तक प्रामाणिक संरक्षण की चिन्ता से निश्चिन्त होगी और प्राधिक दशा रूप से चलता रहा । 'पारस विलास' के बाद भी उनकी सुन्दर होगी। पारसदास के अनुमार' जयपुर के महाराजा गति रुकी नहीं। यह उनके कथन से ही सिद्ध है। उन्होंने रामसिंह थे। वे न्याय-पूर्वक राज्य करते थे। प्रजा के लिम्बा है-"उनीसे अरु बीस के साल पछै जे कोन । ते शुभ कर्म का उदय था। वह 'खुस्याल' थी, अर्थात् धन- याके वारे रहे वांची मुनो प्रवीन ॥" प्रत. अनुमान किया धान्य से पूर्ण थी। कोई कमी नही थी।
जा सकता है कि उनका जन्म १९वीं शताब्दी के तीसरे जयपुर मे १०. जैन चैत्यालय थे। उनमे एक शान्ति- पाद के प्रारम्भ में हुमा होगा। इनके पिता पं. नन्दलाल जिनेश का मन्दिर 'बड़े मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध था। के सहपाठी थे। मूलाचार की ५१६ गापामों की बनिका वहां तेरापंथ' की अध्यात्म सैनी चलती थी। अर्थात् वहा लिखने के उपरान्त पं० नन्दलाल का स्वर्गवास हो गया प्रतिदिन एक गोष्ठी होती थी, उसमे मध्यात्म-चर्चा पोर था, तब उस कार्य को ऋपभदास जी ने ही पूरा किया पठन-पाठन ही प्रमुख था। गोष्ठी मे 'नाटक-त्रय' सदेव था। उसकी प्रशस्ति उन्ही ने लिखी, जिसमे नन्दलाल पी पड़े जाने थे। उनके अतिरिक्त और किसी ग्रन्थ का को उनके पिता जयचन्द छाबडा के समान ही व्युत्पन्न पाठन नही होता था। नाटक-त्रय पाज भी अध्यात्म के बताया है। किन्तु मूलाचार की अवशिष्ट वनिका से प्राण है। यह क्रम प्रात: और सध्या दोनों समय चलता सिद्ध है कि ऋषभास जी भी उन्हीं के समान विज्ञान था। परिणाम यह ना कि सभी श्रोता तत्वज्ञान के थे। नन्दलाल और ऋपभदास दोनो ने एक साथ अपचन्द जानकार हो गये। पारसदास भी उनमे एक थे। कुछ जी से विद्या ग्रहण की थी। दोनो समकालीन थे। दोनों लगन विशेष थी, प्रतः अच्छा ज्ञान हो गया। यहा तक का रचना-काल १९वी शताब्दी का ततीय पौर चतुर्थ कि अब शास्त्र वे ही पढ़ने लगे और सब सुनते थे। पारस पाद मुनिश्चित है। प्रतः पारसदास का समय चतुर्ष पाद दास के दो भाई मानचन्द और दौलतराम भी जैनशास्त्रो के अन्त से प्रारम्भ होना स्वाभाविक लगता है। के मर्मज्ञ थे। उनका नाम विख्यात था। सभी भाई जैन पारम विलास' इतना प्रसिद्ध हमा कि पारसदास के
र बन सक, क्याकि उनक पिता जीवन काल में ही सर्व साधारण के बीच इसका पठनऋषभदास जी स्वय विद्वान थे और अपने पुत्रो की शिक्षा-पाठन होने लगा। उसकी अनेक हस्तलिखित प्रतिया दीक्षा उन्होंने स्वय की। वे सजग रहे और उनके पुत्र
मिलती हैं। उनमें दो को मैंने देखा है। एक दिन व्युत्पन्न बन सके।
पन्चायती मन्दिर बड़ौत के शास्त्र भण्डार में है और उनमे पारसदास विद्वान बने मौर कवि भी। उन्होने
दूमरी जयपुर के किसी भन्डार मे मैंने देखी थी। इस 'पारस विलास' की रचना की। यह वि. स. १९१९-२०
__समय बडीन की प्रति मेरे सामने है। इसमें ८x१३ इञ्च के लगभग पूर्ण हुमा२। इसमे उनकी रची हुई 'पन्त की
के १०४ पन्ने हैं। लिखाई स्वच्छ, सुन्दर और शुद्ध है। पीठिका' के अतिरिक्त ४. मुक्तक रचनाएँ है। उन सब
का नाम और सन-संवत प्रादि-प्रत मे कही की रचना एक ही समय मे नही हो गई थी, अपितु समय
नही दिया है। बुहारी हिन्दी होते हुए भी लिपि में कोई १. इम परिषय के लिए देखिए पारसविलास', दि.जैन प्रवद्धि नही है। अवश्य ही, लिपिकर्ता उपर का होना
पञ्चायती मन्दिर, बड़ौत की हस्तलिखित प्रति, चाहिए। ऐसा लगता है कि यह प्रति पारसदास बी के अन्तिम पीठिका, पृ.१०४।
जीवनकाल में लिखी गई हो। यह तो सुनिश्चित है कि २. देखिए वही।
लिपिकार कोई न था।