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बनेकान्त
शिष्य थे। वहां से उन्हें राम मिला। नाथपथियों और प्रर्यालङ्कारों में लालाजी को सबसे अधिक प्रिय था सूफियों से प्रदृष्ट ब्रह्म । दोनों मिल गये तो ब्रह्म राम हो दृष्टान्तालङ्कार। प्रभीष्ट कथ्य को स्पष्ट करने के लिए गया। मैं जहां तक समझ सका हूँ, हिन्दी काव्य को दृष्टान्त उसके अन्तः तक को खोलते चले जायं, तभी 'पातम' के लिए राम शब्द कबीर ने दिया। कबीर के उनकी सफलता है। ऐसा वह ही कवि कर पाता है बाद राम शब्द का इस अर्थ मे मधिक प्रयोग हुना, इतना जिसकी दृष्टि व्यापक और पकड़ पैनी होती हो। लाला भर मेरा तात्पर्य है। जैन प्राध्यात्मिक कृतियों (हिन्दी) हरयशराय ऐसे ही कवि थे। बनारसीदास के बाद मुझे में भी राम शब्द कबीर के बाद ही अधिक देखने को वह ही मुझे इसे क्षेत्र में सिद्धहस्त प्रतीत हुए। जहां लाला मिलता है। किसका किस पर प्रभाव था, यह एक पृथक जी के दृष्टान्त अधिकाश तया प्रकृति के बीच से लाए गये खोज का विषय है। यहां तो इतना ही पर्याप्त है कि वहां बनारसीदास ने व्यावहारिक जीवन को अधिक लाला हरयशराय ने 'राम' शब्द का खुल कर प्रयोग टटोला । यह हो दोनो मे अन्तर था, वैसे दोनों के दृष्टान्त किया। उनकी दृष्टि में कबीर न होंगे, यह सत्य है, किन्तु अपने लक्ष्य पर फिट बैठे है। और ऐसा करने में कोई उनके पहले जैन हिन्दी के कवियों की एक लम्बी परम्परा कठिनता नहीं हुई। सब कुछ सहज स्वाभाविक ढग से थी, जिसमें प्रात्मा को राम कहा गया था। लाला जी ने हा। वे प्रयत्न-पूर्वक नही लाये गये । इसी कारण उनमे उसे वहां से ही लिया होगा, यह ठीक है।
सहज सौन्दर्य है । एक उदाहरण देखिए___शब्दामबारों में 'यमक' और 'अनुप्रास' लाला जी
"कोन गिर्ने घन बूंदन को, बन पत्र पयोधि तरंग बनावे। को प्रियतम हैं। उनकी छटा से शुष्क सैद्धान्तिक बात भी
कौन गिनें कर लि सों, उरबी, गिर मेहको तोल दिखाये। ललित हो उठी है। वर्णनात्मक प्रसंग भी चमक उठे है।
कौन तरे भुजसों रतनाकर, अम्बर में उड़ अन्त सुनावे । देवलोक, देवगण, समोशरण प्रादि का पौराणिक वर्णन भी
श्रीगणसागर साधु अगाध, कहां कवि अपनी बृद्धि लगाये।"
कर उनकी लेखनी में पाकर कवित्व बन गया है। साथ ही x
x x x कठिनता भी माई है, किन्तु संगीत की लय और कविता "चन्द्र कि चाह चकोर चहै, दिननाथको कोक उड़ीक रहे हैं। के प्रवाह ने उन्हें केशव की भांति 'कठिन काव्य का प्रेत' न विर्ष बछरी हित पारत, बालक मात को मेल चहे हैं। बनने से बचाया है। फिर भी इतना मानना होगा कि रीत मालति सों लपटाय रहे अलि, चातक मेघ सों मोद लहे हैं। काल की अलङ्कार-प्रियता का उन पर जबर्दस्त प्रभाव है।
साधु महामुनिके पग को हित सेवक चित्त प्रपार गहे हैं ।"२ जैन हिन्दी का अन्य भक्ति काव्य ऐसा अलङ्कार-मय नही है, उसकी भक्ति सहज है तो अभिव्यक्ति भी प्रासान है। इस दृष्टि से वह हिन्दी के भक्तिकाव्य जैसा ही है। लाला पारसदास का जन्म जयपुर में हुआ था। उन्होंने हरयशराय ने अपने काव्य को समय के प्रभाव से बचाया,
जान सूर्योदय नाटक की वचनिका में अपना परिचय दिया किन्तु उसकी अभिव्यक्ति नही बचा सके। समय प्रबल है। उस समय जैपुर 'सवाई जैपुर' के नाम से प्रसिद्ध था। होता है और लेखक या कवि को किसी-न-किसी रूप मे उसका दूसरा नाम 'ढुढाहड' भी था । वास्तव मे 'बढाहर्ड' प्रभावित करता ही है। अनुप्रास के लिए कठिन बनाये एक देश था और जयपुर उसका मुख्य नगर । उसके एक गए एक पद्य को देखिए, जिसमें साधू-भक्ति है, किन्तु भाग मे 'ढुढाहडी' भाषा चलती थी। जयपुर में भी दुरूहता के बोझ से बोझिल
उसके बोलने वालो की पर्याप्त संख्या थी। कुछ कवियों "तियके सुतके मितके बनके, नरके न चुके न उके छलके। ने उस नगर को ही 'दुढाहड' देश लिखा है। दुढाहडी सुरके नरके सुलके लजके, पटके न टिके शिवके पलके। भाषा मे अच्छे स हित्य की रचना हुई। ५० टोडरमल जिनके तपके बलके झलके, झषके तुलुके हटके टलके। को कृतियो में उसके निखरे हुए रूप के दर्शन होते हैं। तिनके पगके ढिगके तनके, सुरके शिरके मणिके झलके१॥" उस समय जयपुर में ६ हजार जैन मौर ९४ हजार १. साधु गुणमाला, ७७वा पद्य ।
२. साधु गुणमाला, पद्य क्रमशः ११६, ११५ ।