Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 387
________________ ३५० अनेकान्त बेजिन चित्र चित्रनानाविध नानाविध सुररिखिये। और शायद इसीलिए किसी कवि ने 'कवि कौन है' को जिनवर सर्व सर्ववर्ती प्रभु अपना विषय नहीं बनाया। किन्तु लाला हरयशराब ने प्रभु समाधि विर चित्त भये ॥६॥" इसका उत्तर दिया है। लालाजी भक्त कवि थे, अत: देवरचना लालाजी के हृदय की देन है। वह भक्ति भक्ति के परिप्रेक्ष्य में ही उनका उत्तर है। इस परिप्रेक्ष्यता का तो निदर्शन ही है। जिनराज को केवलज्ञान हमा तो के होते हुए भी उनकी मान्यता सर्वांगीण है। उनका उसके 'महोछव' में सम्मिलित होने के लिए करोड़ों सुर. कथन है कि कवि वह है जिसकी वाणी महात्मा-साधुनों बन्द चल पड़े। हवय मानन्द से उमगे पड़ रहे थे। कोई का गुणानुवाद गाये बिना न रहे। महात्मा का पर्व है हँस रहा था, कोई सिंहनाद कर रहा था, कोई गरज रहा महान प.त्मा का धनी । महान प्रात्मा वह है जो संसार था। कोई एक-दूसरे से मिल कर मुसुकुरा उठा तो किसी के पावागमन से छूट गई हो, चिरन्तन शाश्वत सुख मेहास-विलास में ही पित्त लगाया । इस मांति महोत्सव का अनुभव करने लगी हो अथवा उस पथ पर चल ही का रंग तब पर सवार था। अभी बिमराज के दर्शन हुए पड़ी हो। कवि वह ही है जो उसके गुणों में विभोर हो नहीं थे, किन्तु जैसे बाताबरण एक अदृश्य शक्ति से रस- फूट पड़े। लाला जी ने अपनी यह मान्यता दृष्टान्तालंकार भीना हो उठा था। जब कोई प्रात्मा परमात्मा बनती है के मध्य ऐसी सजायी है कि 'कवि' साक्षात् हो उठा हैतो सृष्टि के जड़ और चेतन सभी पुलकित हो उठते है। "जिम केतक बलके महिके, अलिके चित्तके मटके बहिके। नता भर जाती है और एक अनिर्वचनीय सुख व्याप्त मधुके इतके, बनके, सरके, पिक केम चुके विनके लबके। हो उठता है। देवगण उसी दिव्य शक्ति के तार में बधे घनके घटके स्वरके सुमके, किम केकि चुके नृतके लटके। चले जा रहे हैं खगके रमके किवके तुटिके, कवि केम चुके स्तबके कथके।"१ "केवल ज्ञान प्रकास भयो सम इनामहा महिमा हितमाए। होह विनीत लगे चरणों कर जोर टिके चित भक्ति भराए॥ इसका अर्थ है कि जिस प्रकार केवड़े की पत्तियों की न पियूष सुपर्म कथा सुख-दायक श्री विनराज सुनाए। महक में भौरा बैठे बगैर नहीं रहता, जैसे वसन्त ऋतु में जीब-अजीव पवारण निश्चित, बन के बीच प्राम की मञ्जरी को खाकर कोयल के लोक-प्रलोक के भेवबमाए ॥१३॥" बगर नहीं रहती, जैसे मेघों की गर्जन सुन कर मयूर कवि कौन है ? अर्थात् कविको परिभाषा क्या है ? प्रमत्त नृत्य के बिना नहीं रहता और जैसे व यु के वेग वान प्रवाह में ध्वजा हिले बिना नही रहती, ठीक वैसे ही या कवि किसे कहते है ? काव्य के क्षेत्र में एक प्रारम्भिक महात्मामो का गुणगान किए बिना कवि की वाणी भी और महत्वपूर्ण प्रश्न है । इसका साहित्यशास्त्र के अनेकानेक भाचार्यों ने अपने अपने ढंग से उत्तर दिया है। वे नही रुकती। फूट पड़ती है। उसके शक्ति-सम्पन्न वेग को प्राचार्य कवि नहीं थे, केवल प्राचार्य थे। उन्होने काव्य वह रोक नहीं पाता। यदि शैले के शब्दों में कहें तो उसका हार्ट 'माउट बर्स्ट' हो जाता है । महान पात्मामो सिद्धान्तों का प्रणयन किया था किन्तु स्वयं कविता नही के गुणों पर रीझ कर जिसका दिल नहीं फटा वह भी की थी। वे अधुरे थे। काव्य सिद्धान्तों को बांध में नहीं कोई कवि है। मम्मट के शब्दों में उसे सदय होना ही बाधा जा सकता है । न उस परतन्त्रता को उसने कभी चाहिए। लाला जी ने उसी को कवित्वमयी भाषा मे सहेजा। जब-जब उसमें बंधा, एक अस्वाभाविकता से घिर गया है। स्थायी नहीं हो सका। प्राचार्यों का प्रयास जो देह ऊपर से दिखाई देती है, वह जीव नहीं है । सदैव एकांगी रहा । यही कारण है कि 'कवि कौन' का जीव तो 'मातम राम' है। वह अखण्ड है, अबाधित है उत्तर कभी सर्वांगीण नहीं हो सका । 'खग की भाषा खग ही जाने' की भाति 'कवि की भाषा कवि ही जाने ठीक मोर ज्ञान का भण्डार है। उसका रूप चिदानन्द है। है । पहले के कवि साहित्यशास्त्र की बात नहीं करते थे। १. माधुगुणमाला, १०वा पद्य ।

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