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हिन्दी गरिमौर काव्य
साधु महात्मा सदैव ऐसा सोचा करता है। इसी कारण न ईश्वर हो, न नि:स्व हो, न तरुण हो, न वृद्ध हो। वह समता में विश्वास कर पाता है। वह न तो अपना इन सबसे परे हो, ऊपर हो, मूत्ति-विहीन हो, अमन हो, सन्मान और पूजन चाहता है और न अन्य के द्वारा की प्रनिन्द्रिय हो, परमानन्द स्वभाव हो, नित्य हो, निरन्जन गई अपनी निन्दा का बुरा मानता है। वह बन्दन पोर हो, जो कर्मों से छुटकारा पाकर ज्ञान-मय बन गया हो, विन्दा दोनों में सम्भाव रखता है। उसका मोह न इस जो चिन्मय हो, त्रिभुवन जिसकी बन्दना करता हो। लोक में होता है और न परलोक में। यहां परलोक का इसी प्रातमराम को ब्रह्म कहते है। हरिभद्राष्टक में लिखा अर्थ है-स्वर्गलोक । जैन परम्परा में १६ स्वर्ग माने गये है, "प्रतीन्द्रिय परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं बिना । शास्ण-युक्ति हैं। सच्चा साधु स्वर्ग का वैभव और सुख सम्पन्न जीवन शतेनापि, न गम्यं यद् बुधा जगु.३ ।" अर्थात् ब्रह्म, भी नहीं चाहता। वह तो 'पातमराम' के महारस को प्रतीन्द्रिय होता है और विशुद्ध अनुभव के बिना उसकी चाहता है। ऐसा अनिर्वचनीय और शाश्वत प्रानन्द जो प्राप्ति सम्भव नहीं है। जैन श्रुतियों में प्रसिद्ध है, "परं कभी न घटे न बढ़े न मिटे, न बने, न मरे न जीवे । सब सत्यज्ञानमनन्तं ब्रह्म४।" लाला हरयशराय इस समूची से ऊपर हो । जो इसे पा लेता है, उसके वन्दन की बात
परम्परा मे खरे उतरते हैं। उन्होंने साधुगुणमाला में
परम्परा मे खरे उतरते हैं। लाला हरयशराय ने कही है
लिखा है"है घट प्रातमराम महारस,
"मातमराम अनप प्रमुरत, पादिप्रनावि अनन्त विलासी। ते मुनि बन्दि मिटे भव फेरी।"१
चेतन अङ्गमभङ्ग चिदानन्द, रंग न रूपमई गुणराशी। जिस 'पातमराम' मे महारस है, उसका स्वरूप भी
व्यापक ज्ञायक नत्य विराजत, लाला जी ने प्रस्तुत किया है। उनका कथन है कि
सो पिर ध्यानविर्ष अविनाशी ॥६॥" 'पातमराम' अनूप है, प्रमूत्तिक है, प्रादि अन्त रहित है,
प्रात्मा के लिए 'राम' शब्द का प्रयोग मध्यकालीन अनन्त में विलास करने वाला है। वह अभङ्ग है, चिदा- है। लाला हरयशराय से पूर्व हिन्दी के प्रसिद्ध कवि नन्द है। उसके न रूप है, न रग। वह व्यापक, ज्ञायक
बनारसीदास, भगवतीदास, भैय्या', द्यानतराय, देवाब्रह्म, पौर चिरन्तन है। नाश तो उसका कभी होता ही नहीं,
जगतराम, मनराम, ने प्रात्मा के लिए 'राम' शब्द का अर्थात् अविनाशी है। प्रात्मा का यह स्वरूप जैन सिद्धान्त
प्रयोग किया है। अपभ्रश के कवि निरञ्जन, चिदानन्द,
निष्कल, निर्गुण, ब्रह्म और शिव कहते रहे। मुनि राम के अनुरूप ही है। महाकवि योगीन्दु ने 'परमात्म प्रकाश'
सिंह ने पाहुड दोहा में केवल एक स्थान पर 'राम' शब्द मे पातमराम को निरञ्जन कहा। उन्होंने लिखा है
का प्रयोग किया है। प्राचीन जैन पारम्परिक काव्य में "जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न शब्द, न स्पर्श, न
'ब्रह्म' और 'निरञ्जन' शब्द अधिक देखने को मिलते हैं। जन्म और न मरण, वह निरञ्जन कहलाता है३।" पर
हिन्दी में निर्गुण पंय के कबीर ने 'राम' को ही अपना मात्मप्रकाश में ही एक दूसरे स्थान पर उन्होंने स्पष्ट
आराध्य बनाया; किन्तु वे दशरथ-पुत्र नहीं थे। अर्थात्. किया है कि परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्मा, बुद्ध जो चाहे
उन्होने निर्गुण ब्रह्म को राम कहा। उनकी रचनामों में सो कहो, किन्तु परमात्मा तभी है, जब वह परम प्रात्मा
स्थान-स्थान पर 'राम' शब्द देखने को मिलता है। उनके हो। और परम प्रात्मा वह है जो न गौर हो, न कृष्ण
लिए यह सहज स्वाभाविक हो सका। वे रामानन्द के हो, न मूक्ष्म हो, न स्थूल हो, न पण्डित हो, न मूर्ख हो,
१. परमात्मप्रकाश, १२९६, ९१, पृ० ६०,९४| १. वही, ६३वे पद्य को अन्तिम पक्ति ।
२. वही, १११३१, २०१८, पृ० ३७, १४७ । २. माधुगुणमाला, ६३वा पद्य ।
३. अभिधान राजेन्द्रकोश, पञ्चमो भाग, बंभ शब्द ३. परमात्म प्रकाश, १३१६, पृ० २७ ।
पृ० १२५६ । ४. परमात्म प्रकाश, २१२००, पृ० ३३७ ।
४. देखिए वही।
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