Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 381
________________ २४४ अनेकान्त प्रतिमा का माकार-प्रकार से अधिक पूर्व मध्यकाल की प्रतीत होती है। इस पर इस प्रतिमा और उसके सपूर्ण परिकर की रचना यक्षियों के नामों की लिपि मध्यकाल से पूर्व की नही प्रतः सवा तीन फुट चौड़े और पौने छ: फुट ऊँचे शिलाफलक ये नाम या तो प्रतिमा के निर्माणकाल में ही उत्कीर्ण किये पर हई है इस फलक पर अम्बिका के अतिरिक्त शेष २३ गये होगे या उसके कुछ पश्चात उत्कीर्ण किये गये हो शासन देविया यक्षिया, १३ तीर्थकर३६, नवग्रह, अम्बिका सकते है । पर यह निस्सन्देह रूप से निश्चित है कि इस के दोनों पुत्र शुभंकर और प्रभंकर, एक भक्त युगल और प्रतिमा का निर्माण इस मन्दिर के निर्माण के कम से कम दो सेविकाएं, इस प्रकार कुल मिल कर ५२ व्यक्तियों की तीन सौ वर्ष पश्चात् हपा था। इस संबन्ध मे सर कनिघम प्रतिमाएं हैं जिनमें जैसा कि कहा जा चुका है, विशालतम के शब्द पर्याप्त होंगे, 'अभिलेखों (यक्षी नामों के उत्कीर्ण पौर मुख्यतम अम्बिका की है। इसी अम्बिका के एक किये जाने के प्रारम्भिक काल से भी बहुत पहले का यह विशेषण 'पतियान' के रूप में ही इस प्रतिमा और इस मन्दिर प्रतीत होता है। इसलिए निस्सन्देह, यह सभव है मन्दिर को नाम प्राप्त हुए हैं। इन प्रतिमानी के प्रति कि मृति की स्थापना के काफी समय के बाद नाम उत्कीण रिक्त, अम्बिका का वाहन सिंह भी अपने स्थान पर किये गये हों। पर मेरा विश्वास इस ओर अधिक है कि अकित है और फलक के पाश्वं मे गज, अश्व तथा मकर कि प्रस्तुत प्रतिमा भी उमी काल की है जिस काल के आदि की प्राकृतिया भी सजा की दृष्टि से दोनो ओर अभिलेख है और वह (प्रति अभिलेख है और वह (प्रतिमा) इम मन्दिर में स्थापित अकित की गई हैं। की गई थी जो काफी लम्बे समय से खाली पड़ा रहा जंन पुरातत्त्व की दृष्टि से, प्रतिमा शास्त्रीय लक्षणों था।'३६ की साङ्गोपाङ्ग अभिव्यक्ति से और मनोहारी सौन्दर्य के अम्बिका मतिकारण यह मूर्ति भव्य और अनुपम बन पड़ी है। चतुविशति शिलाफलक के बीचोबीच, शिला के कुछ भाग को पट्ट तो देवगढ़ आदि में सैकड़ों की संख्या मे उपलब्ध है उकेर कर और कुछ भाग को कोर कर अम्बिका ४० की पर उनमे से किसी एक पर भी एक-दो से अधिक शासन खड़ी हुई, साढे तीन फुट लम्बी चतुर्भुज४१ मूति४२ देवियों का अंकन उपलब्ध नहीं होता जबकि इस पर एक साप३७ चीबीसों शासन देविया अपने-अपने उपास्य ३६. ए. पार., ए. एस. पाई., जिल्द , पृ. ३२ । तीर्थकर और नाम के साथ अंकित की गई हैं। मुनि ४०. (म) सव्यकाङघ्रय पप्रियंकरसुतं प्रीत्ये करे बिभ्रती कान्तिमागर के शब्दों में इसका परिकर न केवल जैन दिव्याघ्रस्तबक शुभकराश्लिष्टान्यहस्ताङ्गुलिम् । शिल्प-स्थापत्य कला का समुज्ज्वल प्रतीक है, अपितु भार. सिंहे भत'चरे स्थितां हरितभामाम्रदुमच्छायगा। तीय देवी-मूति-कला की दृष्टि से भी अनुपम है३० । बन्दारु दशकार्मुकोच्छयजिनं देवीमिहाम्बा यजे॥' पाशाधर, पण्डित: प्रतिष्ठासारोद्धार, प्र० ३, श्लोक १७६ प्रतिमा निर्माण काल ४०. (ब) 'हरिद्वर्णा सिंहसंस्था द्विभुजा च फलम् वरम् । यह प्रतिमा कला की दृष्टि से मध्यकाल या अधिक पुत्रेणोपास्यमाना च सुतोत्सङ्गा तथाम्बिका ।।' ३६. इस शिलाफलक के खण्डित अश पर शेष ११ तीर्थदूरो शुक्ल डी. एन., वास्तुशास्त्र, भाग २, पृ० २७३ की प्रतिमाएं भी अवश्य थी, क्योंकि उनकी १३ की अपराजितपृच्छा से उद्धृत)। संख्या का कोई अर्थ नहीं, और चौबीसों पक्षी- ४१. इसके अतिरिक्त, इस देवी की द्विभुज, षड्भुज, मष्टमूर्तियों का अस्तित्व भी यही सिद्ध करता है कि भुज द्वादशभुज मादि मूर्तियां भी देवगढ़ प्रादि स्थानों तीर्थङ्कर-मूर्तिया भी चौबीस ही थी। पर उपलब्ध होती हैं। ३७. देवगढ में मन्दिर-सख्या १२ के बहिर्भाग पर चौबीसों .२. अम्बिका की विभिन्न मूर्तियों के विवरण के लिए शासन देवियों का उनके नामों के साथ अंकन है । देखिए : ३८. खण्डहरों का वैभव, पृ० २५०-५२ । (१) शाह यू. पी. : माइकनोग्राफी पॉफ दि जैन गॉडेस

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