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सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्यवातिक पर बदसण्डागम का प्रभाव
सम्वविसुखोएदेसि चेव कम्माणं जाधे मंतोकोडाकोडि- गति, मनुष्यगति और देवगति मे यथासम्भव उक्त पर्याप्त दिदि ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि उणियं ताधे प्रादि अवस्थामों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है। वहां पढमसम्मत्तमुपादेदि ॥५॥
प्रारम्भ में 'काललब्ध्यादिप्रत्यानपेक्ष्य तासां प्रकृतीनामुप_____त० वा० १, पृ० १०४.-उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु शमो भवति' यह जो निर्देश किया था उसमें काललब्धि जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति? के साथ प्रयुक्त 'मादि' शब्द से जातिस्मरणादि कारणों अन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्य- को ग्रहण करते हुए उनकी भी सम्भावना पृथक्-पृथक मानेषु, विशुद्धिपरिणामवशात् सत्कर्मसु च तत: संख्येय- नारकादि चारों ही गतियों में व्यक्त कर दी है। यथासागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितो स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । xxxस पुन
तत्र नारकाः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयन्तः पर्याप्तकाः भव्यः पचेन्द्रियः संज्ञी मिथ्यादृष्टि: पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः
उत्पादयन्ति, नापर्याप्तकाः। पर्याप्तकाश्चान्तमुहर्तस्योपरि प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति ।
उत्पादयन्ति, नाधस्तात् । एवं सप्तसु पृथिवीषु । तत्रोपरि ष० ख० (पु.६)-पढमसम्मत्तमुप्पादेतो अंतोमुहु
तिसृषु पृथिवीषु नारकास्त्रिभिः कारणः सम्यक्त्वमुपजनतमोहट्टोदि ।।६॥ पोहोट्ट दूण मिच्छत्तं तिण्णिभागं करेदि
यन्ति-केचिज्जाति स्मृत्वा, केचिद् धर्म श्रुत्वा, केचिद् सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ॥७॥ दंसणमोहणीयं कम्म
वेदनाभिभूताः । त० वा० १, पृ० १०५ उवसामेदि ॥८॥ उवसातो कम्हि उवसामेदि ?
किन्तु षट्खण्डागम में उनका स्पष्टीकरण गतिविशेष चदुसु वि गदीसु उवसामेदि । चदुसु वि गदीसु
के अनुसार वहां न करके मागे नववीं चूलिका के प्रारम्भ उवसामेतो पंचिदिएसु उवसामेदि, णो एइंदिय-विय
में १ से ४२ सूत्रों द्वारा किया गया है । उन्हीं का यह उपलिदिएसु । पचिदिएसु उवसातो सण्णीसु उवसामेदि, णो
युक्त छायानुवाद तत्त्वार्थवार्तिक में उपलब्ध होता है। असण्णीसु । सण्णीसु उवसातो गम्भोवक्कंतिएसु उवसा
यथामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गडभोवक्कतिएसु उवसातो
रइया मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेति ॥१॥ उप्पा. पज्जत्तएसु उवसामेदि, णो उपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु
देता कम्हि उप्पादेति ? ॥२॥ पज्जत एसु उप्पादेति, णो उवसामेंतो सखेज्जवासाउगेसु वि उवसामेदि असखेज्ज
अप्पज्जत्तएसु ॥३॥ पज्जत्तएसु उप्पादेंता अंतोमुहत्तप्पहडि वासाउगेसु वि | पृ० २३०-२३८
जाव तप्पाप्रोग्गंतोमुहत्तं उपरिमुष्पादेति, णो हेढा ॥४॥ त० वा० १, पृ. १०४-५-उत्पादयन्नसो मन्त
एवं सत्तमु पुढवीसु णेरइया ॥५॥ रइया मिच्छाइट्ठी मुहर्तमपवर्तयति, अपवयं च मिथ्यात्वकर्म विधा विभजते ।
कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पा-ति ? ॥६॥ तीहि -सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यमिथ्यात्वं चेति । दर्शनमोह- कारणहि पढमसम्ममुप्पादेति ॥७॥ केई जाइस्सरा, नीयं कर्मोपशमयन् क्वोपशमयति ? चतसृषु गतिषु ।
केई सोऊण, केइं वेदणाहिभूदा ॥८॥१० ख० पु. ६
पृ०४१८-२२ ऊपर षट्खण्डागम के सूत्र में यह निर्देश किया
त. सू० के सूत्र ३-६ की व्याख्या में तत्त्वार्थवातिकगया है कि दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाला
कार ने, नारकी जीव नरकों में किस गुण-स्थान के साथ जीव उसे चारों ही गतियों में करता है। विशेष यह कि
प्रवेश करते हैं व वहां से किस गुणस्थान के साथ निकलते उसे पंचेन्द्रिय, संज्ञी, गर्भज और पर्याप्त होना चाहिए
हैं, इसकी प्ररूपणा की है (पृ० १६८) । वह भी षट्एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय, असंजी, संमूर्छन जन्मवाला और अपर्याप्तक जीव उस दर्शनमोह के उपशान्त करने में समर्थ १ इन कारणों की प्ररूपणा सर्वार्थसिद्धि में भी सूत्र नहीं होता।
१,७ की टीका में साधन का स्पष्टीकरण करते हुए पर तत्वार्थवार्तिक में प्रागे 'चदुसु वि गदीसु उवसामेदि' ठीक इसी प्रकार से उन्हीं शब्दों में की गई है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए क्रमशः नरकगति, तियंच
(देखिए पृ. २६)