Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 357
________________ अनेकान्त सन्डागम का शब्दशः अनुवाद है । यथा यह कथन षट्खण्डागम की इसी चूलिका के सूत्र प्रथमायामुत्पद्यमाना नारकाः मिथ्यात्वेनाधिगताः २०३-२२० का अनुसरण करता है। (पु. ६ पु. ४८४ कचिन्मिध्यात्वेन नियन्ति। मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित से ४९२) जैसेसासादनसम्यक्त्वेन निर्यान्ति । मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित् अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइया गिरयादो गैरइया सम्यक्त्वेन निर्यान्ति। केचित् सम्यक्त्वेनाधिगताः सम्य- उध्वट्टिदसमाणा कदि गदीनो पागच्छंति ? ॥२०॥ पत्वेनैव निर्यान्ति क्षायिकसम्यग्दष्टयपेक्षया । द्वितीया- एक्कं चेव तिरिक्खगदिमागच्छति ॥४॥ तिरिक्खेसु दिषु पंचसु नारका मिथ्यात्वेनाधिगताः केचिन्मिथ्यात्वेन उववण्णल्लया तिरिक्खा छण्णो उप्पाएंति-पाभिणिबोहिनियन्ति ।..."इत्यादि। यणाणं णो उप्पाएंति, सुदणाणं णो उप्पाएंति, प्रोहिणाणं इस सन्दर्भ का मिलान षट्खण्डागम (पु० ६, पृ० णो उप्पाएंति, सम्मामिच्छत्तं जो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएंति, संजमासंजमं णो उप्पाएंति ॥२०५॥ ४३७ मादि) के इन सूत्रों से कीजिए त० सू०९-१ की व्याख्या में संवर तत्त्व का व्याणेरड्या मिच्छेतेण अधिगदा केई मिच्छत्तण णीति ख्यान करते हुए तत्त्वार्थवातिक में कहा गया है कि जिस के मिच्छत्तण अधिगदा सासणसम्मत्तेण णीति जिस कर्म का जो कारण (मास्रव) है उसके प्रभाव में ४ा केई मिच्छत्तण अधिगदा सम्मत्तेण णीति ॥४६॥ उस उस कर्म का संवर होता है। इसको और स्पष्ट सम्मतेण अधिगदा सम्मत्तेण चेव णीति ॥४७॥ एवं करते हुए वहां मिथ्यात्व, अविरति (असंयम), प्रमाद, पढमाए पुढवीए रइया ॥४८॥ बिदियाए जाव छट्ठीए कषाय और योग के प्रभाव में जिन जिन कर्मों का संवर पुढवीए गैरइया मिच्छत्तेण अधिगदा केई मिच्छत्तण होता है उनका क्रम से नामनिर्देश किया गया है। इस [णीति] ॥४६॥ इत्यादि । कथन का आधार षट्खण्डागम का तृतीय खण्ड बन्धस्वाउसके मागे इसी सूत्र की व्याख्या में तत्त्वार्थवातिक मित्वविचय रहा है। यथामें जो नारकी जीवों की अन्य गति में जाने की प्ररूपणा तद्यथा-निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचला-स्त्यानगुढघनन्तानुकी है (जैसे-षड्भ्य उपरिपृथिवीभ्यो नारका मिथ्यात्व- बन्धिक्रोध-मान-माया-लोभ-स्त्रीवेद-तिर्यगायुस्तिर्यग्गति-चतु. सासादनसम्यक्त्वाभ्यामुद्वतिता तिर्यङ्मनुष्यगती प्राया संस्थान-चतु संहनन -तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्योद्योताप्रशस्तन्ति ।....."इत्यादि) वह षट्खण्डागम की प्रकृत चूलिका के विहायोगति-दुर्भग - दुःस्वरानादेय-नीचैर्गोत्रसंज्ञकानां पंच७६ से १.० (पु० ६ पृ. ४६-५४) सूत्रों के अनुवादरूप विशतिप्रकृतीनाम् अनन्तानुबन्धिकषायोदयकृतासंयमहै। जैसे-जेरइयमिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी णिरयादो प्रधानासवाणां एकेन्द्रियादयः सासादनसम्यग्दृष्टचन्ता बन्धउम्वदिवसमाणा कदि गदीमो मागच्छंति ? ॥७६॥ दो काः। तदभावे तासामुत्तरत्र संवरः । त० वा०पृ.५९. गदीमो मागच्छंति तिरिक्खगदि चेव मणुस्सगदि चेव इसका मिलान षट्खण्डागम के इन दो सूत्रों से ॥७७॥..."एवं छसु उवरिमासु पुढवीसु रहया ॥१२॥ तत्पश्चात् तत्त्वार्थवार्तिक में इसी सूत्र की व्याख्या में णिद्दाणिहा-पयलापयला-धीरागिदि-अणंताणुबंधिकोहयह बतलाया है कि उन उन गतियों में पाकर वे नारकी माण-माया-लोभ - इत्यिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंजीव किन किन गुणों को प्राप्त कर सकते हैं। जैसे- ठाण - चउसंडण-तिरिक्खगइपामोग्गाणुपुग्वि-उज्जोव-पप्प सप्तभ्यां नारका मिथ्यादृष्टयो नरकेम्य उतिता सत्यविहायगइ-दुभग-दुस्सर-प्ररणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधोर एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति । तिर्यवायाता: पचेन्द्रिय को प्रबंधो? ॥७॥ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। गर्भज-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुःषत्पद्यन्ते, नेतरेषु । तत्र घो- खातो . एदे बंधा, मवसेसा प्रबंधा ॥८॥ ष० ख० पु. एद बघा, १० त्पन्नाः सर्वे मति-श्रुतावधि-सम्यक्त्व-सम्यमिथ्यात्व. ३०-३१ । संयमासंयमान नोत्पादयन्ति । इत्यादि । पृ० १६५-६६। १. बंधो बंधगो त्ति मणिदं होदि । धवला पृ० ५ पृ०७॥

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