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अनेकान्त
नरनारीके योग सो बहुगुण दिखलावे। पंचरंग तस काय भविक लोक मन भावे ॥ निकट बसे बोले नही कब नीची का सिर रहे। सकल संघ विचार करीब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥७॥
नवकरवाली पुरुष एक दिन जीव हाय पाय सिर नहि तस । वर्ण पंच तस काय रहत महनिशि सो परवस ॥ जल संयोग होय जलसं प्रीति न भावे । छेवन भेवन सहे मनमा रीस न मावे॥ राजसभामं च देशविदेशे संचरे। बाणे पन बोले नही ब्रह्मशान इम उच्रे men
मुख विण गावे गीत पुच्छ लंबो तस पेसो। कबहों रहे भूपीठ कवहाँ गगनांगण देखो। प्रचड पेट बीसे सदा गुणवती कौतुक करे। बह्म ज्ञानसागर कहे अर्थ ते जगमें जस बरे ॥१२॥
गुडी नारि मनोपम एक प्रीति पुरुषसू मंडे। मुनिवर जंगम जेह प्रीति तहसू छडे । वंकासू प्रति वंक समासु सम बड राखे। सकल पुरुष श्रृंगार तास महिमा सवि भाषे। सवि जनकू प्रति बल्लही रंगे रसपूरित सदा। जणे गढते जहवसी ब्रह्म ज्ञान बोले मुदा ॥१॥
पगडी
एक पुरुष अद्भुत रंग तस पंच बसाणे। चाले मृगपति चाल व्याघ्र प्रासन पण जाणे॥ गावत राग वेस नेत्र नीला तस बोऊ। जल पल तास निवास परत सबुरी सोऊ ।। नग्न रूप निशिदिन रहत धूप ठंड परिषह सहे। कवण पुरुष निश्चय करो ब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥६॥
पुरुष एक निर्जीव तस सिर नारी चारह । तस सिर पुष्प विशाख परिमल रहित विचारह ॥ घुपे नवि सुकाय भ्रमर न पासे पाये। घर घर ते निवसंत राज भेट नवि ल्यावे॥ ते वाडीमा नवि नीपजे देवार्चन नवि प्राणिये। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति कवण फूल बखाणिये ॥१४॥
मेंढक
रवी
एक प्रचेतन नारि रंग तस पंचे परसिद्धी। के जग गुणियण लोक तेन नित निजकर लिखी॥ क्षण नारी के संग क्षण नर उपरि बसे । क्षण अनि बसे कान क्षण निज मंदिर पेसे॥ हस्त पाय बीसे नही जीभ बोय मुख श्यामहे । नगर लोक सविअर्थवो ब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥१०॥
लेखनी लंबू पांगल पाठ गुंफामाहि चलाये। इपिर ये तस बदन कर परिजोर हलावे। घसे वार वश बीस पंत लाल तस पावे। घाले तब निर्दोष पुरुष परम सुख पावे ॥ घोवत प्रति शुचि होय सवि कीषा विन चाले नही। सदा विचारो मानवी ब्रह्म ज्ञानसागर कही॥११॥
दांतण एक नारि निर्जीव रंग तस पंज बखाणे । हस्त पाय सिर रहित सींग पण दो तस जाणे॥
नार एक निर्जीव उभय पुरुष तस जाणो। नाम प्रगट सस एक देह दस बोय बखाणो॥ खावे अन्न अनंत नहि दुर्बल नहि माती। न गमे नरसंयोग महिला जनसं राती॥ तस पेट एक सुंदरि रहे मुल प्रगट एक जाणिये । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति ते कवण नाव पामिये ॥१५॥
चांकी शिवरूपी सकुमाल बदन तस कृष्ण बखाणो। अमृत बरत अनंत शशि वर पणमत जाणो । पालत सकल जगत्र वस्त्र पेहरत नाना पर । तजत सकल सना हरण वेला नर सुखवर ॥ संसारी पर प्रति घणा नाम प्रसिद्ध सुर नर लहे। कवण पुरुष ते जाणिये ब्रह्मज्ञानसागर कहे ॥१६॥
कुचमंडल एक प्रवेतन नार गौर वर्ण अति सुन्दर। कटि विन पहरे वस्त्र प्रांश नविकञ्चल मंदिर।