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अनेकान्त
खेल्हा धर्मनिष्ठ, दान-पूजादि गृही षट्कर्मों का पौर विमल चित्त का धारक था। ब्रह्मचारी खेल्हा ने संपालक, पौर देव-शास्त्र गुरु का भक्त था। सम्पत्तिशाली तोसउ साह के लिए 'सम्मइ जिनचरिउ' बनाने के लिए होते हुए खेल्हा प्रात्म-साधना का इच्छुक था खेल्हा ने भट्टारक यशः कीति से कवि रइधू को प्रेरित कराया था; अपनी चित्तवृत्ति वैराग्य और ज्ञान की प्रतिष्ठा करते हुए क्योकि वह समझता था कि संभव है कवि मेरी प्रार्थना ग्यारह प्रतिमा का धारक उत्कृष्ट श्रावक बन गया तब स्वीकार न करें। अतः यशः कीर्ति से अनुमति दिलवाना उसने ग्वालियर में चन्द्रप्रभु की विशाल मूर्ति का निर्माण उचित ही था, जिससे कवि को इंकार करने का अवसर कराया था। उसे गृहस्थाश्रम में रस नहीं पाता था। ही न मिले। इन्हीं ब्रह्मचारी खेल्हा के अनुरोध से कवि कई कारणों से वह घर रूपी कारागह से अपना उद्धार ने 'णेमिणाहचरिउ' (हरिवंशपुराण) की रचना साहू माहा करना चाहता था। यद्यपि माता-पितादि पारिवारकजनों के पुत्र लोणा साह के लिए कराई थी। से उसका कोई विरोध भी प्रतीत नहीं होता, वह तो मात्महित को सर्वोपरि मानता था, इसीलिए हिसार से
साहू तोसउ की धार्मिक परिणति का वर्णन करते ग्वालियर के तात्कालिक भद्रारको और विद्वानों के सनिध्य हुए कवि ने लिखा है कि साहू तोसउ जिन चरणों का में रह कर पात्म-साधना के साथ जिनवाणी के उद्धार में भक्त, पचेन्द्रियों के भोगों से विरक्त, दान देने में तत्पर, अपना समय व्यतीत करता था। इसीलिए वह सांसारिक ।
पाप से शकित भयभीत और सदा तत्त्व चिन्तन में बेह-भोगों से विरक्त श्रावक के द्वादशवतों का अनुष्ठायक निरत रहता था। उसकी लक्ष्मी दुखीजनों के भरणसिरिसेट्टि वंश उप्पण्णु धम्मु,
पोषण मे काम पाती थी और वाणी श्रुत का अवधारण तेजा साहू जि णामें पसण्णु ।
करती थी। मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करने में प्रवृत्त बहु पिय जालपहिय वण्णणीय,
होता था, वह शुभमती था, उसके सम्भाषण में कोई दोष परिवार-भत्त सीलेण सोय ।
न होता था, चित्त तत्त्वों के विचार में लीन था और तहिं गम्भ उवण्णा सुव सपुण्णि,
दोनों हाथ जिन-पूजा-विधि से सन्तुष्ट रहते थे। जैसाकि राजस पालु ढाकर जि तिणि ।
सम्मइ जिन चरिउ की दूसरी तीसरी संधि के प्रारंभ के तुरिया वि पुत्तिजा पुण्णमुत्ति,
निम्न पद्यों से स्पष्ट हैशिच जि विरइय जिणणाह-भत्ति ।
जो णिचं जिण-पाय-कंजभसलो जो णिच्च बाणे रखो। स्लीमी णामा वरसील यत्ति,
जो पंचेविय-भोय-भाव-विरदो जो चितए संहिदी। को कह वण्णई तहं गुणह कित्ति ।
जो संसार-महोहि-पातन-भिवो जो पावदो संकियो। सा परिणिय तेण गुणायरेण, बहु काले जं ते सायरेण ।
एसो णदउ तोसडो गुण जुदो सत्तत्य वेई चिरं ॥२ गियर भायर गंदण गुण णिउत्त,
लच्छी जस्स दुही जणाण भरणे वाणी सुयं पारणे । मागेप्पिणु गिहिउ कमलवत्त ।
सीसं सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभाषणे । हेमाणामें परिवार-भत्तु, तहो घरहो भार देप्पिणु विरत्तु चित्त तच्च-वियारणे करजयं पूया-विहि संबदं । __x x x
सोऽयं तोसउ साहु एत्य षवलो सं पवनो भूयले ॥३॥ जस कित्ति मुर्णिदहु गविवि पाय,
कवि रइधू ने साहू तोसउ के लिए सन्मति चरित्र की अणुवय धारिय ते विगय-माय ।
रचना ग्वालियर के तोमरवंशी राजा डूगरसिह के राज्यजैन ग्रंथ प्रशस्ति स०पृ०६९-७०
काल में की थी। डूंगरसिंह का राज्यकाल वि० सं० १. ससिपह जिणेवस्स पडिमा विशुद्धस्स,
१४८१ से १५१० तक रहा। काराविया मई जि गोवायले तुग।
-जैन ग्रंप प्रशस्ति सं०पृ०६३ २. देखो, हरिवंशपुराण प्रशस्ति वही पृ. ८८-८९
परिमावि .
राविया